ओ३म
वर्तमान में मांस भक्षण का प्रचलन बहुत बढ़ रहा है। यह अत्यधिक शोक और दुःख की बात है। हमारी अपने जन-प्रतिनिधियों की सरकार फालतू पशुओं, खाद्य पदार्थ ओर भोजन की समस्या के हल के एक उपाय के रुप में लोगों की आदतों में परिवर्तन करके मांसाहार को प्रोत्साहन करने की जब सोचती है तो सच्चे धार्मिक मानव को दुःख और निराशा ही मिलती है। क्योंकि मांसाहार को प्रोत्साहन अमानुषिक, अत्याचारी और निर्दयी कृत्य है।
_विश्व का श्रेष्ठतम् ज्ञान ग्रन्थ वेद कहता है―_
*मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।। यजु. ।।*
*अर्थात्–*सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिए, चाहे वे मनुष्य हों, पशु हों, पक्षी हों या अन्य जीव हों।
*हिंसा महापाप है।*
हिंसा से बढ़कर शायद ही कोई दूसरा पाप हो हिंसा से विवेक नष्ट हो जाता है। बड़े से बड़ा निर्दयी कसाई भी अपने शरीर में सुई का चुभना बर्दाश्त न करेगा, उसे भी दूसरों के समान अपना जीवन प्यारा है फिर क्यों नहीं इस वेद आज्ञा का पालन किया जाता है―
_दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार हो, जैसे व्यवहार की तुम दूसरों से आशा रखते हो।_
*यस्तु सर्वाणि भूतान्थात्मन्ने वानु पश्यन्ति ।*
*सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति ।।*
―(यजु. अ. 40-म. 6 ।।)
*अर्थात्―*_जो विद्वान् जन परमात्मा के भीतर ही सब प्राणी व अप्राणियों को समान दृष्टि से देखता है और जो सब प्रकृति आदि पदार्थों में भी आत्मा को देखता है उस विद्वान् को दुःख नहीं होता अर्थात् वही सदा सुखी होता है।_
मनुस्मृति में कहा है―
*अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय-विक्रयी ।*
*संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ।।*
―(मनु. अ.-5 श्लोक-51)
*अर्थात्―*_जिसकी सम्मति से मारते हैं, जो अङ्गों को काटकर अलग-अलग करता है, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला ये आठ प्रकार के कसाई हैं।_
*स्वमाँसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति ।*
*अनभ्यर्च्य पितृन्दे वांस्ततोऽन्यो नास्त्य पुण्यकृत् ।।*
―(मनु. 5-52)
*अर्थात्*―
_देव (विद्वान् व संन्यासी) और पितरों (माता-पिता, प्रपिता-प्रमाता आदि) के पूजन बिना जो दूसरे जीव के मांस से अपना मांस बढ़ाने की इच्छा रखता है, उससे बढ़कर कोई पाप करने वाला नहीं।_
*अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः ।*
*एतं सामासिकं धर्मं चतुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः ।।*
―(मनु. 10-63)
*अर्थात्―*_हिंसा न करना, सत्यभाषण, दूसरे का धन अन्याय से न लेना, पवित्र रहना और इंद्रियों का निग्रह करना यह चारों वर्णों (मानव समाज) का धर्म मनु ने कहा है।_
*मांस मनुष्य का अप्राकृत भोजन*
मनुष्य यदि स्वभाव से मांस भक्षी होता तो उसके शरीर की रचना मांसाहारी प्राणियों के सदृश होती। बिल्ली का बच्चा चूहे को देखकर उसे मारने को दौड़ता है परन्तु मनुष्य का बच्चा ऐसा नहीं करता।
यदि मनुष्य कभी किसी दिन अपने कमरे, सभा स्थल, पूजा स्थल (मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा) को हड्डियोः, मांसपेशियों और रक्त आदि से सजाकर देखे तो उसे सहज ही अपने वास्तविक स्वभाव का पता लग जाये। यदि स्वयं मारकर खाना पड़े तो निश्चय ही करोड़ों व्यक्ति मांस खाना छोड़ दें।
निर्दोष एवं उपयोगी पशुओं को मारने के दण्ड से मनुष्य भले ही मानवीय न्यायालय से बच जाये, परन्तु ईश्वरीय न्यायालय से कभी भी नहीं बच सकता।
*मांसाहार से शराब पीने की कुटेब पड़ती है।*
शराब और मांस का साथ होता है। वैज्ञानिकों ने इसका भी कारण बताया है। डॉ. हेग का कहना है कि अफीम, कोकिन और शराब की तरह मांस भी उत्तेजक है और जब इनकी आदत पड़ जाती है तो मनुष्य अधिक उत्तेजक पदार्थों की इच्छा करता है। अन्त में सिरदर्द, उदासी और निर्बलता सताने लगती है।
मांस, शराब और मैथुन ये तीन चीजें हैं जिनसे मनुष्य में उत्तेजना बढ़ती है और स्नायु (तन्त्रिका तन्त्र) कमजोर हो जाते हैं, वात संस्थान बिगड़ जाता है और निराशा दबा लेती है।
*मांस के विरुद्ध डाक्टरों की सम्मत्तियाँ*
(1) मांस खाने से कैंसर की बीमारी हो जाती है। (डॉ. लेफिन बिल)
(2) जिगर और किडनी दूषित होकर अपना काम छोड़ देती है और उसके फलस्वरुप क्षय, कैंसर, गठिया आदि रोग हो जाते हैं। (मेरी ऐस ब्राउन)
(3) दूध, रोटी, मक्खन, शाक, दाल और दलिया बच्चों के लिए सब खानों में सर्वोत्तम है। मांस खाने से बच्चे प्रायः शर्मीले और दुर्बल होते हैं। (डॉ. टी. एस. क्लाडस्टन, एम. डी.)
*अन्य मत ग्रन्थों में माँस खाना पाप*
(1) हरगिज नहीं पहुँचते अल्लाह के पास, उसके गोश्त और खून, पहुँचती है उसके पास तुम्हारी परहेजगारी। (कुरान शरीफ सूर. ए. हज़)
(2) गाय और बैल को मारना, एक मनुष्य के वध के समान है। एक मेमने को मारना भी कुत्ते का गला काटने के समान है। (ईसाइयत)
(3) मैं न तो घर से बैल, न तेरी पशुशालाओं में से बकरे लूँगा। क्योंकि वन के सारे जीव जन्तु और पहाड़ों पर रहने वाले हजारों पशु भी मेरे हैं। पहाड़़ों के जितने पक्षी हैं उनको मैं जानता हूँ औ चोगान में जितने चलते फिरते हैं सब मेरे ही हैं। यदि मैं भूखा रहता तो तुझसे न कहता क्योंकि जगत तथा जो कुछ उसमें है यह मेरा ही है। क्या सांड का मांस खाँऊ अथवा बकरज का लहू पिऊँ? मुझे (परमेश्वर को) धन्यवाद रुपी बलि चढ़ा और मुझ परम प्रधान के लिए अपनी मनोतियाँ पूरी कर। संकट के दिन मुझे पुकार, मैं तुझे छुड़ाऊँगा और तू मेरी महिमा गायेगा। (बाइबिल स्त्रोत संहिता)
अर्थात् प्रत्येक सम्प्रदाय में माँस खाना मना है यदि ऐसा न होता तो माँसाहारी लोग मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, मन्दिर या अन्य किसी पूजा स्थल पर भी माँस खाने से परहेज न करते।
इसलिए जिह्वा के स्वाद, अन्धविश्वास, मनोरंजन और विलासिता के शौक की पूर्ति हेतु जीवों के उत्पीड़न और हनन से बचकर मनुष्य को अपनी मानवता का परिचय देना चाहिए। इसी में उसका और समाज का कल्याण है।
*माँसाहार से हानियाँ*
(1) माँसाहार अस्वाभाविक, अहितकर व अनावश्यक।
(2) यह अन्न से कम पुष्टिकर।
(3) दाँतों की सफेदी पर उसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। मुख व शरीर से बदबू आती है।
(4) माँसाहार से आयु घटती है।
(5) माँसाहार आलस्य, भारीपन तथा शारीरिक श्रम में अरुचि उत्पन्न करता है।
(6) यह राष्ट्र की स्वार्थ परायणता, लोलुपता, अवनति, ह्रास तथा विनाश की जड़ है।
(7) माँसाहार से शराब पीने की बुरी और विनाशकारी आदत को प्रोत्साहन मिलता है।
(8) अण्डों में कैल्शियम की कमी और कार्बोहाइड्रेट्स का अभाव होता है। इस कारण ये बड़ी आंतों में जाकर सडांध और बदबू पैदा करते हैं।
(9) अण्डें आँतों को जहरीला बनाते हैं। अतः घृणित अण्डों को त्यागें और उत्तम प्रोटीन से युक्त दूध, फल, मेवे आदि ग्रहण करें।
*माँसाहारियों ने, जनता के दुःख बढ़ायें हैं।*
*सभी हितकारी, जीव मार कर खाये हैं।।*
[साभार-स्वामी सोम्यानन्द सरस्वती, सार्वदेशिक सभा कार्यालय]
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