मैकाले पुत्रों और वामपंथियों की बातों में न आएं : दलित व् शुद्र नहीं होते है एक।
*प्रश्न :- "दलित" और "शूद्र" में क्या अंतर है ?*
( इस लेख का उद्धेश्य किसी वर्ग विशेष की भावनाएं आहत करना नहीं बल्कि जन मानस को सत्य से अवगत कराना है )
उत्तर :- "दलित" और "शूद्र" में वही अंतर है जो स्वर्ण और पीतल में होता है | पूर्वाग्रह से ग्रसित कुछ मैकाले पुत्र अपनी अज्ञानता एवं संकीर्ण मानसिकता के कारण शूद्र एवं दलित को एक ही मानते हैं, तथा पश्चिमी असभ्यता के कुप्रभाव में आकर वैदिक शास्त्रों का अध्ययन किये बिना ही वैदिक शास्त्रों के विरुद्ध ऊल - जलूल बकते रहते हैं |
दलित और शूद्र के मध्य अंतर समझने के लिए सर्वप्रथम दलित का अर्थ समझना होगा | "दलित" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "दल्" धातु से हुई है | दलित शब्द "फलित" शब्द का विलोम है |
दलित एवं फलित का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है –
"दलित" - : पीड़ित, शोषित, दबा हुआ, खिन्न, उदास, टुकडा, खंडित, तोडना, कुचलना, दला हुआ, पीसा हुआ, मसला हुआ, रौंदा हुआ, विनष्ट
"फलित" - : पिडामुक्त, उच्च, प्रसन्न, खुशहाल, अखंड, अखंडित, जोडना, समानता, एकरुप, पूर्णरूप, संपूर्ण
उपरोक्त शाब्दिक अर्थों से यह ज्ञात होता है कि दलित और फलित शब्द किसी जाति विशेष के लिए नहीं है बल्कि दलित और फलित तो कोई भी हो सकता है चाहे वह ठाकुर हो, पण्डित हो, बनिया हो, भंगी हो, चमार हो या हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिक्ख हो, जैन हो, पारसी हो अथवा किसी भी जाति या मजहब का हो |
अंग्रेजी भाषा में दलित शब्द का अर्थ OPPRESSED होता है | सर्वप्रथम उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ( ईसाईयों ) द्वारा भारतीयों की प्राचीन सामजिक व्यवस्था को तोड़ने के लिए OPPERESSED ( दलित ) शब्द का प्रयोग एक जाति विशेष के लिए प्रारम्भ किया गया |
उन्नीसवी सदी से पूर्व भारतीय समाज में दलित शब्द का प्रयोग किसी समुदाय अथवा जाति विशेष के लिए नहीं किया जाता था | उन्नीसवीं सदी से पूर्व इस सम्पूर्ण भू – लोक में दलित जाति का एक भी व्यक्ति अस्तित्व में नहीं था क्योंकि वैदिक शास्त्रों के अनुसार मनुष्यों को चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ) में बाँटा गया है, जो कि कर्म आधारित व्यवस्था है जन्म आधारित नहीं और इन चार वर्णों से भिन्न पाँचवे को अनार्य, असुर या दस्यु कहा गया है |
किसी भी वैदिक शास्त्र में कहीं पर भी दलित जाति के लिए कोई भी आज्ञा अथवा निर्देश नहीं दिया गया है और न ही शूद्र = दलित होता है इस प्रकार का वर्णन आया है | इससे यह स्पष्ट है कि दलितों के जनक अंग्रेज ( ईसाई ) हैं, जिसका भारतीय वर्ण व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं |
अंग्रेजों ( ईसाइयों ) ने भारतीयों की सामाजिक एकता तोड़ने के लिए दलित जाति को जन्म दिया था और अज्ञानतावश आज भी हमारे देश में एक बहुत बड़ा वर्ग बिना सोचे समझे, बिना अपने पूर्वजों का इतिहास जाने स्वयं को "दलित जाति" का मानता है | हमारे देश के कुछ देशद्रोही असामाजिक तत्व विदेशियों के इशारे पर देश में अस्थिरता उत्पन्न करने के लिए दलितवाद का झंडा उठाये रहते हैं ऐसे समाज विरोधी स्वार्थी लोग माँ एवं मातृभूमि का सौदा करने के लिए सदैव तैयार रहते है और अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने के लिए समाज में जातिवाद का जहर घोलते रहते हैं |
ऐसे असामाजिक तत्व ही समाज को बाँटने तथा जातिवाद को बढ़ावा देने के लिए तरह तरह की भ्रांतियाँ समाज में फैलाते रहते हैं | इनकी मूर्खता पर हँसी तो तब आती है जब ये दलित और शूद्र को एक ही मान कर अपनी ऊल – जलूल बकवास को आमजन के बीच प्रचारित करते हैं |
दलित और शूद्र के मध्य अंतर समझने के लिए शूद्र वर्ण की परिभाषा समझना आवश्यक भी है जो कि वैदिक शास्त्रों में इस प्रकार है –
" शोचनीयः शोच्यां स्थितिमापन्नो वा सेवायां साधुर अविध्द्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा " अर्थात शूद्र वह व्यक्ति होता है जो अपने अज्ञान के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाया और जिसे अपनी निम्न स्थिति होने की तथा उसे उन्नत करने की सदैव चिंता बनी रहती है अथवा स्वामी के द्वारा जिसके भरण पोषण की चिंता की जाती है |
"शूद्रेण हि समस्तावद यावत् वेदे न जायते" अर्थात जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है वह चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो |
"जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात द्विज उच्यते" अर्थात प्रत्येक मनुष्य चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो वह जन्म से शूद्र ही होता है | उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर विदध्याध्ययन करने के बाद ही द्विज बनता है |
जो मनुष्य अपने अज्ञान तथा अविद्ध्या के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता वह शूद्र रह जाता है | महर्षि मनु ने शूद्र के कर्म इस प्रकार बताये हैं –
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत | एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ||
अर्थात परमात्मा ने शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले व्यक्तियों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है वो यह है कि अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों के यहाँ सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना |
क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है इसलिए उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है |
उपरोक्त तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि शूद्र एवं दलित एक दूसरे से भिन्न हैं | शूद्र कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था में आता है जबकि दलित अंग्रेजों द्वारा दी गयी जन्मजात व्यवस्था में आता है |
वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्रों को वर्ण परिवर्तन का अधिकार है, शूद्रों को अछूत नहीं माना है, शूद्रों को समाज में सम्माननीय माना है, शूद्रों को दण्ड में भी छूट है जबकि इसके विपरीत अंग्रेजों ( ईसाईयों ) द्वारा निर्मित दलित जाति के लोगों को अंग्रजों के ही द्वारा दिए गए भारतीय संविधान में न तो जाति परिवर्तन का अधिकार है, न ही उन्हें सम्माननीय माना है और न ही दण्ड व्यवस्था में किसी प्रकार की छूट दी गयी है |
मैं समस्त देशवासियों से निवेदन करता हूँ कि अंग्रजों ( ईसाईयों ) द्वारा दी गयी जातिवाद – दलितवाद की व्यवस्था को दें
भारत में जो भी गरीब है चाहे वो किसी भी जाति का हो, वो दलित ही है, और आरक्षण सिर्फ दलितों को ही मिलना चाहिए माने ऐसे लोग जो आर्थिक दृष्टि से शोषित हो, चाहे वो किसी भी जाति के हो
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