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ये ब्लॉग/चिट्ठा मैने भारत देश के बारे में जानने और समझने के लिये बनाया हैँ ! सत्य की जय हो ! विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च | व्याधितस्यौषधं मित्रं ,धर्मो मित्रं मृतस्य च||
श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वादशवें स्कंध के दूसरे अध्याय में श्री शुकदेव जी ने कलियुग का निरूपण किया है।जो आज के समय लगभग जैसा बताया गया है वैसा ही घटित हो रहा है। और कलियुग में केवल भगवान के नाम जप को ही सार्थक बताया है।
1. कलियुग के प्रबल प्रभाव से धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, शारीरिक बल तथा स्मरणशक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होते जायेंगे (SB.12.2.1) |
2. एकमात्र संपत्ति को ही मनुष्य के उत्तम जन्म, उचित व्यवहार तथा उत्तम गुणों का लक्षण माना जायेगा | कानून तथा न्याय मनुष्य के बल के अनुसार ही लागू होंगे (SB.12.2.2) |
3. पुरुष तथा स्त्रियाँ केवल उपरी आकर्षण के कारण एक साथ रहेंगे और व्यापार की सफलता कपट पर निर्भर रहेगी | पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व का निर्णय कामशास्त्र में उनकी निपुणता के अनुसार किया जायेगा और ब्राह्मणत्व जनेऊ पहनने पर निर्भर करेगा (SB.12.2.3) |
4. मनुष्य एक आश्रम को छोड़ कर दूसरे आश्रम को स्वीकार करेंगे | यदि किसी की जीविका उत्तम नही है तो उस व्यक्ति के औचित्य में सन्देह किया जायेगा | जो चिकनी चुपड़ी बातें बनाने में चतुर होगा वह विद्वान् पंडित माना जायेगा (SB.12.2.4) |
5. निर्धन व्यक्ति को असाधु माना जायेगा और दिखावे को गुण मान लिया जायेगा | विवाह मौखिक स्वीकृति के द्वारा व्यवस्थित होगा (SB.12.2.5) |
6. उदर-भरण जीवन का लक्ष्य बन जायेगा | जो व्यक्ति परिवार का पालन-पोषण कर सकता है, वह दक्ष समझा जायेगा | धर्म का अनुसरण मात्र यश के लिए किया जायेगा (SB.12.2.6) |
7. प्रथ्वी भ्रष्ट जनता से भरती जायेगी | समस्त वर्णों में से जो अपने को सबसे बलवान दिखला सकेगा, वह राजनैतिक शक्ति प्राप्त करेगा (SB.12.2.7) |
8. कलियुग समाप्त होने तक सभी प्राणियों के शरीर आकर में छोटे हों जायेंगें और धार्मिक सिद्धान्त विनिष्ट हो जायेंगे | राजा प्रायः चोर हो जायेंगे; लोगों का पेशा चोरी करना, झूंठ बोलना तथा व्यर्थ हिंसा करना हो जायेगा और सारे सामाजिक वर्ण शूद्रों के स्तर तक नीचे गिर जायेंगे | घर पवित्रता से रहित तथा सारे मनुष्य गधों जैसे हो जायेंगे (SB.12.2.12-15) |
9. कलियुग के दुर्गुणों के कारण मनुष्य क्षुद्र दृष्टि वाले, अभागे, पेटू, कामी तथा दरिद्र होंगे | स्त्रियाँ कुलटा होने से एक पुरुष को छोड़ कर बेरोक टोक दूसरे के पास चली जायेंगी (SB.12.3.31) |
10. शहरों में चोरों का दबदबा होगा | राजनैतिक नेता प्रजा का भक्षण करेंगे और तथाकथित पुरोहित तथा बुद्धिजीवी अपने पेट व जननांगों के भक्त होंगे (SB.12.3.32) |
11. ब्रह्मचारी अपने व्रतों को सम्पन्न नही कर सकेंगे और सामान्यता अस्वच्छ रहेंगे | सन्यासी लोग धन के लालची बन जायेंगे (SB.12.3.33) |
12. व्यापारी लोग क्षुद्र व्यापार में लगे रहेंगे और धोखाधडी से धन कमायेंगे | आपात काल न होने पर भी लोग किसी भी अधम पेशे को अपनाने की सोचेंगे (SB.12.3.35) |
13. नौकर धन से रहित स्वामी को छोड़ देंगे भले ही वह सन्त सद्रश्य उत्कृष्ट आचरण का क्यों न हो | मालिक भी अक्षम नौकर को त्याग देंगे भले ही वह बहुत काल से उस परिवार में क्यों न रह रहा हो (SB.12.3.36) |
14. मनुष्य कंजूस तथा स्त्रियों द्वारा नियंत्रित होंगे | वे अपने पिता, भाई, अन्य सम्बन्धियों तथा मित्रों को त्याग कर साले तथा सालियों की संगति करेंगे (SB.12.3.37) |
14. शुद्र लोग भगवान् के नाम पर दान लेंगे और तपस्या का दिखावा कर, साधू का वेश धारण कर अपनी जीविका चलायेंगे | धर्म न जानने वाले उच्च आसन पर बैठेंगे और धार्मिक सिद्धांतों पर प्रवचन करने का ढोंग रचेंगे (SB.12.3.38) |
15. लोग थोड़े से सिक्कों के लिए शत्रुता ठान लेंगे | वे सारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को त्याग कर स्वयं मरने तथा अपने सम्बन्धियों को मार डालने पर उतारू हो जायेंगे (SB.12.3.41) |
16. लोग अपने बूढ़े माता-पिता, बच्चों व अपनी पत्नी की रक्षा नही कर पायेंगे तथा अपने पेट व जननांगों की तुष्टि में लगे रहेंगे (SB.12.3.42) |
17. हे राजन! कलियुग में लोगों की बुद्धि नास्तिकता के द्वारा विपथ हो जायेगी | तीनो लोकों के नियन्ता तक भगवान् के चरण-कमलों पर अपना शीश नवाते हैं, किन्तु इस युग के क्षुद्र एवं दुखी लोग ऐसा नही करेंगे (SB.12.3.43) |
18. अन्त में शुकदेव गोस्वामी कहते हैं: हे राजन! यधिपी कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है- केवल “हरे कृष्ण महामन्त्र” का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है (SB.12.3.51) |
19. हे राजन! सत्ययुग में बिष्णु का ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से तथा द्वापर युग में भगवान् के चरणकमलों की सेवा करने से जो फल प्राप्त होता है, वही कलियुग में केवल हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन करके प्राप्त किया जा सकता है (SB.12.3.52) | (ऐसा ही श्लोक विष्णु पुराण(6.2.17), पध्म पुराण (उत्तर खंड 72.25) तथा ब्रह्न्नारदीय पुराण (38.97) में भी पाया जाता है ) | महामंत्र ~ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
वेद 'विद' शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला। सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान। अनुभूत सत्य। जाँचा-परखा मार्ग। इसी में संकलित है 'ब्रह्म वाक्य'। वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।
वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है। 'श्रु' धातु से 'श्रुति' शब्द बना है। 'श्रु' यानी सुनना क्योंकि इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने सृष्टि के आदि में चार ऋषियों के मन में प्रगट किया- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।
वेद वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोडों वर्षों से सृष्टि के आदि से चली आ रही है। कुछ विद्वानों ने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है। बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं।
संहिता :वेद का मन्त्र भाग ही संहिता है वेद है।। वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है। वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है। जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है, मुग्ध हो उठता है।
ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है। वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है। मुख्य ब्राह्मण तीन हैं : (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ। यही असली पुराण हैं। आधुनिक अठारह पुराणों में कुछ वेद विरुद्ध बातें व काल्पनिक किस्से कहानियां भी हैं।
आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं 'अरण्य'। अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया 'आरण्यक'। मुख्य आरण्यक पाँच हैं : (1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार।
उपनिषद : उपनिषद को वेद का सरल भाग कहा गया है और यही वेदों का सार होने के कारण वेदांत कहलाए। इनमें ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है। उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं। मुख्य उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर। असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं।
लेखन काल : प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। कुछ विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई।पू. से मानी है अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद जिसे वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का विभाजन राम के जन्म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया। दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5112 वर्ष पूर्व होने के तथ्य ढूँढ लिए गए हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा ईक्ष्वाकु के काल वेद पुस्तक रुप में आये।
वेद के विभाग चार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।
ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें 10 मंडल हैं और 1,0522 ऋचाएँ।.इसमें 5 शाखाएँ हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।
यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं कृष्ण और शुक्ल। शुक्ल शाखा अधिक प्रमाणिक है।
सामवेद : साम अर्थात रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इसमें 1875 मन्त्र हैं। ऋग्वेद की ही अधिकतर ऋचाएँ हैं।
अथर्ववेद : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कर्म करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। अथर्ववेद में 5977 मन्त्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएँ हैं।
उक्त सभी में परमात्मा, प्रकृति और आत्मा का विषद वर्णन और स्तुति गान किया गया है।छह वेदांग : (वेदों के छह अंग)- (1) शिक्षा, (2) छन्द, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष और (6) कल्प।
छह उपांग : (1) प्रतिपदसूत्र, (2) अनुपद, (3) छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), (4) धर्मशास्त्र, (5) न्याय तथा (6) वैशेषिक। ये 6 उपांग ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसे ही षड्दर्शन कहते हैं, जो इस तरह है:- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।
वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।
आधुनिक विभाजन : आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया- (1) याज्ञिक, (2) प्रायोगिक और (3) साहित्यिक।
कुछ विद्वानों के अनुसार वेदों का सार है उपनिषदें और उपनिषदों का सार 'गीता' है। इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है। वाल्मिकी रामायण और महाभारत को इतिहास तथा पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना है। विद्वानों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है।
ऋषि और मुनियों को दृष्टा कहा गया है और वेदों को ईश्वर वाक्य। वेद ऋषियों के मन या विचार की उपज नहीं है। ऋषियों ने वह लिखा या कहा जैसा कि उन्होंने पूर्णजाग्रत वा समाधि अवस्था में देखा, सुना और परखा।
मनुस्मृति में कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भगवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।
श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।.तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृतिर्त्वरा॥
भावार्थ : अर्थात जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।
महर्षि दयानंद कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका,सत्यार्थप्रकाश और उनके पूना प्रवचन वेदों के हतिहास व उपदेशों को समझने समझाने में बहुत सहायक हैं।