Thursday, July 28, 2016

महिलाओ की बराबरी पुरुषो से क्यों?

महिलाओ की बराबरी पुरुषो से क्यों?
एक महिला और मेरे बीच हुई वार्तालाप
चौंकिए मत! मैंने यह प्रश्न बहुत सोच समझ कर और महिलाओ के हित में पुछा है
Feminist अर्थात नारीवादी जो बात बात पर उछल पड़ते है उनको भी थोडा दिमाग लगाना होगा
पिछले 50 वर्षो से इस विचार की भूमिका तैयार की गयी और पिछले 25 वर्षो से मूरत रूप दिया गया
भजन, भोजन धन और नारी परदे में ही शोभा पाते है अर्थात इन तीनो का आदर-सम्मान और मर्यादा घर में रहने से ही बढती है
भगवान द्वारा जब इस संसार में स्त्री पुरूष को भेजा जाता है तब उसके जीवन में चार महत्वपूर्ण कार्य होते है जिन्हे की परदे के अंदर अर्थात् पूर्ण सम्मान व आदर पूर्वक किया जाए तभी उसके सार्थक परिणाम प्राप्त होते है।
इन चार कार्यो में प्रथम कार्य भजन जिसे की गौमुख माला के अंदर किया जाए, द्वितीय भोजन जिसे की रसोईघर में बैठकर किया जाए तभी यह रूचिकर व स्वास्थ्य वर्धक होता है, तृतीय धन जिसे की सुरक्षित रखकर उचित एवं उपयोगी व्यय किया जाए तभी इसकी सार्थकता पूर्ण होती है
एवं नारी जो की इस संसार की शक्ति रचयिता है जब परदे के अंदर लोक लज्जा के साथ घर परिवार का सम्मान करती हुई रहती है तभी इन चारों चीजों को उचित प्रतिफल एवं उपयोग प्राप्त होता है।
परन्तु आज यह सब उल्टा हो गया है और सब खुले में हो रहा है
क्या कहना चाहता हूँ मैं?
तो अब एक महिला और मेरे बीच हुए वार्तालाप को ध्यान से पढ़िए जो मुझे एक सप्ताह लगा इस रूप में आपके समक्ष लाने में
(चेतावनी : महिला हो या पुरुष सभी कुतर्कियो और अभद्र भाषा लिखने वालो की टिपण्णी बिना चेतावनी हटा दी जायेगी इसीलिए जो भी कहना हो मर्यादा में रहकर और विवेकपूर्ण तर्क के साथ और अगर नहीं तो इस पोस्ट को अनदेखा करना ही बेहतर होगा)
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महिला: महिलाओ को पुरुषो के सामान अधिकार देने में आपको क्या परेशानी है?
मैं : बहुत परेशानी है हमे क्योंकि महिलाओ को पुरुषो के समान बनाने का एक भयानक षड्यंत्र चलाया जा रहा है
जिस महिला का स्थान भारत में पूजनीय होता था और यहाँ तक की कह दिया गया कि
जहाँ नारी का वास है वह देवताओ का आशीर्वाद बना रहता है
अर्थात नारी का स्थान पुरुषो से नीचे नहीं था अपितु बहुत ऊँचा था और वह नारी प्रगति के नाम पर, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर, फिल्म और टीवी में पैसा लेकर कुछ भी नाटक करने वाले लोगो को अपना आदर्श मानकर, स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने की दौड़ में परिवार से दूर होकर स्वयं को स्वतंत्र मानकर अपने आप को पुरुष के स्तर तक लाकर क्या ठीक कर रही है?
पुरुषो की तरह बात करना, आचरण करना और वेश भूषा पुरुषो जैसी पहनना तो पतन का प्रतीक है
व्यसनों में फसकर धुम्रपान, शराब, अभद्र शब्दों का प्रयोग करना, आदि नारी को शोभा नहीं देती
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प्रश्न: तो क्या यह सब पुरुषो को करने की छूट है लेकिन महिलाओ को नहीं यह भेदभाव् तो ठीक नहीं? सभी नियम महिलाओ के लिए ही क्यों?
उत्तर: यह तो किसी ने नहीं कहा की पुरुषो को छूट है यह सब व्यसन और बुरी आदत सभी के लिए खराब है
हमारे समाज में अकेले पुरुषो का सम्मान गृहस्थ पुरुष से कम होता है इसीलिए प्राचीन काल में सभी महर्षि गृहस्थ होते थे
एक नारी ही पुरुष को पूरा करती है
अपने संस्कारो से और सृष्टि की रचना करने की शक्ति के कारण उसे घर की लक्ष्मी कहा गया है अर्थात देवी का रूप
देवी अगर पुरुष के अवगुणों को दूर न करें और स्वयं अवगुण धारण कर ले तो वह पूज्य नहीं रहती
स्वयं को ऊँचा समझ कर एक आदर्श स्थापित करना ही स्त्री का परम कर्तव्य रहा है इसीलिए नियम महिलाओ को पालन करना होगा
अगर नारी में सद्गुण नहीं होंगे तो आने वाली संतान जिसपर माँ का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है धीरे धीरे पीढ़ी दर पीढ़ी कमज़ोर होती जाएगी और हजारो वर्षो से महापुरुषों को जन्म देती नारी अपने अवगुणों के कारण विनाशकारी पीढ़ी को जन्म देगी जो सृष्टि पर संकट ला देगी
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प्रश्न: आपके इन तर्कों के कारण महिलाये भारत में हमेशा से शोषित और दबा कर रखी गयी है
उत्तर: यह केवल एक भ्रम है जो फिल्मो द्वारा और मीडिया द्वारा प्रचरित किया गया है भारत में कुछ जान बूझकर उछाले गए मामले छोड़ दिए जाये तो हजारो सालो से महिला को देवतुल्य स्थान भारत में दिया गया है वास्तविक नारी का शोषण तो यूरोप में होता आया है जिस संस्कृति का अनुसरण आज हमारे यहाँ की स्त्रियों कर स्वयं को ऊँचा मानती है
यूरोप के तथाकथित महान दार्शनिको के अनुसार स्त्री का महत्त्व घर में पड़े फर्नीचर से अधिक कुछ नहीं था वहां नारी को भोग की वस्तु के अलावा कुछ नहीं समझा गया किसी अदालत में उनकी गवाही को पुरुष से कम महत्त्व दिया जाता है अगर आपको विश्वाश नहीं होता तो स्वयं इसको इन्टरनेट पर ढूंढ सकते है
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प्रश्न: तो आपके अनुसार महिलाओ को पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर होकर अपने पैरो पर खड़ा नहीं होना चाहिए?
उत्तर: आपके कहने का अर्थ है की 21वी सदी की तथाकथित मॉडर्न नारी से पहले की नारी आत्मनिर्भर नहीं थी अपने पैरो पर खड़ी नहीं थी
आपके इस प्रश्न को बल देते हुए कहना चाहूँगा की अगर मैं 1980 तक की भी बात करू तो हमारी गाँव की महिलाये शहर की पढ़ी लिखी महिलाओ से कही अधिक कुशल थी और अपने पैरो पर नहीं बल्कि पूरे कुटुंब को अपने पैरो पर खड़ा कर सकने का सामर्थ्य रखती थी
इसका उदहारण देता हूँ :
पहले और आज भी गाँव में रात के 12 बजे भी अगर 10 मेहमान आ जाये तो घर की महिला उनके लिए रसोई में बिना आधुनिक सुविधा के यंत्रो के बिना आलस और प्रेम भाव से भोजन बना कर आतिथ्य करने की क्षमता रखती थी
यह कही सुनी बात नहीं है 1988 में दिल्ली में पलायन से पहले अलवर, राजस्थान के गाँव में हमारा मकान बन रहा था तो वहां मकान बनाने वाले कारीगर जो संख्या में 4-5 होते थे और जिनकी खुराक खूब होती थी उनके लिए नाश्ता और दोपहर का भोजन 6 महीने तक मेरी माँ स्वयं बनाती थी
वो भी तक जब आटा चक्की पर पीसना पड़ता था, चूल्हे लकड़ी या गोबर से जलते थे
लेकिन अगर शहर में 1 मेहमान भी घर में आ जाये और लगातार 2-3 दिन भी उसका आतिथ्य करना पड़ जाये तो मुसीबत टूट पड़ती है
एक और उदहारण देता हूँ:
आंध्र के गाँव में एक किसान खेत में रहता था और उसकी पत्नी को बच्चा होने वाला था एक दिन सुबह वो बाहर बैठा रो रहा था तो खेत में काम करने जा रही कुछ महिलाए उसे रोता देख पूछती है की क्या हुआ तो वो कहता है की पत्नी को बच्चा होने वाला है और घर पर कोई नहीं है
वो महिलाएं अपना काम छोड़कर बच्चा करवाने की तयारी में लग जाती है कोई पानी गर्म करने लगती है तो कोई किसी और काम में
और कुछ ही देर में बच्चा हो जाता है फिर एक बुज़ुर्ग महिला वहां रूककर देसी तरीके से उसकी देखभाल करती है और वो किसान अपने घर से किसी बड़े को लेकर आ जाता है
इस उदहारण से क्या साबित होता है बिना डिग्री बिना भय कितना सामर्थ्य था हमारी महिलाओ में और कितनी सहजता से ऐसी परिस्थिति को संभाल कर उन्होने कार्य किया
यह महिलाये साक्षर नहीं शिक्षित है
वही आज अगर शहर की साक्षर महिलाओ के सामने ऐसी परिस्थिति आ जाये तो वो कुछ नहीं कर पायेगी और मैं कहूँगा की आज से 20-25 वर्ष बाद तो हमारी महिलाओ का रहा सहा ज्ञान भी विलुप्त होने वाला है
क्योंकि बिना दिशा की साक्षरता के कारण वो पैसे कमाने के लिए पढ-लिख कर और केवल अपनी अनावश्यक जीवनशैली को चलने के लिए आत्मनिर्भर बन ऐसी कला सीख रही है जिसमे उनको सब कुछ रेडीमेड मिल जाये
जैसे आजकल बनी बनायीं रोटियां डिब्बाबंद होकर बिक रही है अब अगर यह आत्मनिर्भरता और शिक्षा है तो व्यर्थ है
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प्रश्न : बचपन पिता की, जवानी पति के और बुढ़ापा बच्चो की गुलामी में गुज़र जाता है फिर तो महिला का अपना कोई जीवन नहीं?
उत्तर: महिला का अपना जीवन परिवार और समाज के हित में समर्पित है क्योंकि वह सृष्टि की जननी है और उसमे जो स्वार्थवश केवल अपने बारे में सोचने की जो सोच पैदा कर दी गयी है वह विनाश का कारण है
आज जिस नारी के जीवन में परिवार और संतान का सुख नहीं है वो ऊपर से कितनी ही सफल और प्रसन्न होने का नाटक कर ले लेकिन जब तक विवाह के बाद एक अच्छा जीवनसाथी और संतान का सुख नहीं मिल जाता जीवन की सब सफलताये धरी की धरी रह जाती है
अर्थात जिस भोग विलासिता के जीवन और चकाचौंध में आज के स्त्री और पुरुषो को फंसा दिया गया है उस सब से मन भरने के बात परिवार और संतान ही याद आती है क्योंकि सृष्टि का वही नियम है
लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और फिर IVF और कृत्रिम गर्भाधान की और भागना पड़ता है लेकिन उन उपायों से होने वाली संतान प्राकृतिक रूप से होने वाली संतानों के अपेक्षा हर प्रकार से कम ही सिद्ध होती है
जो नारी अनंत काल से खूंटे की तरह पूरे घर को बाँध कर, संभाल कर चलती है अगर आप उसे केवल स्वयं के बारे में सोचने वाली एक आत्मनिर्भर व्यक्ति बना देंगे तो क्या यह समाज जो इतने हज़ार वर्षो से कुटुंब के बल पर टिका रहा वो बिखर कर टुकड़े टुकड़े नहीं हो जायेगा
और मुझे दुःख है कि इसका आरम्भ हो भी गया है और हर तीसरे घर में पति-पत्नी के रिश्ते टूटने की कगार पर है या उसमे विश्वाश समाप्त हो गया है
और आपके प्रश्न के दूसरे हिस्से का उत्तर देना चाहूँगा की हजारो सालो से हमारे महान महर्षियो ने समाज के लिए एक व्यवस्था खड़ी की थी जिसमे परिवार और कुटुंब का प्रारूप बनाया गया और उसमे सबकी व्यवस्था बनायीं गयी जिसके केंद्र में देव तुल्य नारी का कल्याण करना ही था
उसी व्यवस्था में यह भी निश्चित किया गया की नारी का समाज में सम्मान और आदर मैसे बना रहे, जिस से वह अपने कर्तव्य पथ से न भटके और अनंत काल तक अच्छी एवं गुणवान संतान उत्पन्न हो और इसकी ज़िम्मेदारी नारी पर है तो उसके जीवन के हर पड़ाव पर एक संरक्षक को नियुक्त किया जाना आवश्यक था
पुत्री के रूप में:
- एक पिता का सबसे बड़ा धर्म है अपनी पुत्री का संरक्षण और पालन-पोषण कर संस्कारवान और गुणवान कन्या के रूप में एक योग्य वर ढूंढ कर विवाह कर देना लेकिन हमारा दुर्भाग्य की जिस देश में मेरे जैसे पिता अपनी पुत्री के रोज़ प्रातः चरण छुकर नमन करते है वहां की बेटियों को यह लगने लगा की पिता उनकी स्वतंत्रता में बाधा है और माता पिता भी आधुनिकता की दौड़ में बेटियों को सुसंस्कारों के स्थान पर अनावश्यक एवं विनाशकारी पतनकारक स्वतंत्रता दे बैठे.
अब नौकरी और उच्च शिक्षा के लिए घर से दूर अकेले रहने वाले लड़का या लड़की एक कुटुंब बनाकर कभी नहीं रहे सकते जहाँ माता पिता या सास ससुर की उपस्तिथि को वो बर्दाश्त कर सके
प्राइवेसी नाम का शब्द जो अमेरिका से जो सीख लिया है
पत्नी के रूप में :
- एक पिता योग्य वर को अपनी कन्यादान कर गंगा नहाता था अब सात वचन जो विवाह के समय लिए जाते है उनको अगर याद करें और अगर पालन करें तो किसी भी दम्पति के जीवन में कोई क्लेश न हो
एक कन्या 7 वचन लेकर ही सात फेरे पूरे करती है और जीवन भर अपनी रक्षा का वचन लेती है तो इसमें गुलामी वाली कोई बात नहीं
अपने पुत्री के वर को हमारे यहाँ बहुत ऊँचा माना जाता है क्योंकि एक पिता अपने घर की इज्ज़त उसे सौंपता है
और जब एक स्त्री बहू बनकर किसी घर में जाती है तो वहां उसका अधिकार उस घर की पुत्री से अधिक हो जाता है क्योंकि एक सास अपने बाद अपनी घर की ज़िम्मेदारी अपनी बेटी को नहीं बहू को सोंप कर जाती है क्योंकि बेटी प्यार है परन्तु बहू अधिकार है
अब परेशानी यहाँ है की सातो वचन तो दिखावे के लिए ले और दे दिए जाते है
अब पत्नी या पति फिल्मो और अन्य प्रकार के मीडिया में देख कर और प्रचारित नकली छवि को वास्तविक समझ अपने होने वाले पति और पत्नी की एक छवि बना लेता है विवाह के लिए वैसे ही एक तथाकथित Perfect जीवनसाथी की आशा मन में पाल लेता है
परन्तु जब वास्तविक वर या वधु उस छवि के आस पास नहीं होते तो निराश होकर जीवन को बोझ समझ ढोते है
परन्तु अगर सातो वचन निभा कर कोई भी दम्पति चले तो प्रेम और आदर की उसे जीवन भर कमी नहीं रह सकती
अगर पति आर्थिक रूप से कमज़ोर है तो पिता और माँ के दिए संस्कारो के कारण लक्ष्मी का स्वरुप बन कन्या किसी भी घर को मज़बूत बना सकती है
अगर संस्कार मिले है तो महिला अपने जीवनसाथी के साथ एक सुखी जीवन का निर्वाह करेगी न की स्वयं को गुलाम या कामवाली समझकर
माँ के रूप में:
अपनी संतान को जन्म देकर अच्छा संस्कार हर माँ देना चाहती है और अगर वही संतान बुढ़ापे में मातापिता की देखभाल करें और उनकी भलाई के लिए उनको कोई निर्देश दे तो उसे गुलामी समझना माँ की भूल है
क्योंकि विडम्बना है कि
माँ अपने बेटे से श्रवण कुमार होने की आशा करती है
वह अपने पति को श्रवण कुमार बनते नहीं देखना चाहती
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प्रश्न: तो आप चाहते है की महिला पढ़े लिखा नहीं, नौकरी ना करें और घर में बैठी रहे?
उत्तर: मेरी इस बात से बहुत सी प्रगतिशील महिलाओ को पीड़ा पहुचेगी लेकिन मैं उनको भी ठन्डे दिमाग से सोचने का निवेदन करूँगा
महिला नौकर बन कहीं नौकरी करें उस से नारी की शोभा घटती है और घर में बैठना नहीं है घर संभालना है और अगर पढना लिखना है तो तो वेद-पुराण, शास्त्र पढ़े और संतो की वाणी पढ़े
अंग्रेजी पढ़ लिख कर विदेशी कंपनियों का कचरा खरीदने का ही काम होने वाला है
अंग्रेजी एक भाषा है उसे उसी भावना से सीखे उसे भगवान् न बनाये
आज खुले बालो में अजीब वस्त्र पहन कर नौकरी करने निकलना पड़ता है इसका कारण उर्दू के इस शेर से समझ जाना जिसने मेरे जीवन को एक दिशा दी
"ज़िन्दगी ज़रुरतो के हिसाब से जिओ ख्वाहिशो के हिसाब से नहीं
क्योंकि ज़रूरतें फकीरों की भी पूरी हो जाती है और ख्वाहिशें बादशाहों की भी अधूरी रह जाती है "
अर्थात की घर की महिला को नौकरी अपनी और परिवार की इक्छाओ की पूर्ती के लिए करनी पड़ती है और शहरों में ज़रूरतें भी इतनी बढ़ गयी है की हर इक्छा भी ज़रूरत ही लगती है..
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प्रश्न: आपने खुले बालो की बात क्यों कही? अब इसमें क्या परेशानी है?
प्रश्न: तो फिर आप सती-प्रथा को भी समर्थन देते है?
प्रश्न: मासिक धर्म के समय महिलाओ के साथ अछूत सा व्यवहार क्यों?
प्रश्न: कुछ मंदिरों में महिलाओ के प्रवेश पर रोक क्यों?
प्रश्न: सुहाग की निशानी जैसे मंगल सूत्र और सिन्दूर हम ही क्यों लगाये पुरुष क्यों नहीं?
आदि कई अन्य प्रश्न भाग 2 में

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