पित्त से हमारा अभिप्राय हमारे शरीर की गर्मी से है। शरीर को गर्मी देने वाला तत्व ही पित्त कहलाता है। पित्त शरीर का पोषण करता हैं यह शरीर को बल देने वाला है। लारग्रंथि, अमाशय, अग्नाशय, लीवर व छोटी आँत से निकलने वाला रस भोजन को पचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पित्त का शरीर में कितना महत्व है, इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि जब तक यह शरीर गर्म है तब तक यह जीवन है।
जब शरीर की गर्मी समाप्त हो जाती है अर्थात् शरीर ठण्डा हो जाता है तो उसे मृत घोषित कर दिया जाता है। कभी-कभी आप सुबह के समय, खाना न पचने पर यह किसी रोग की अवस्था में उल्टी करते समय जो हरे व पीले रंग का तरल पदार्थ मुँह के रास्ते बाहर आता है उसे हम पित्त कहते हैं।
शरीर में पित्त का निर्माण अग्नि तथा जल तत्व से हुआ है। जल इस अग्नि के साथ मिलकर इसकी तीव्रता को शरीर की जरूरत के अनुसार सन्तुलित करता है। पित्त अग्नि का दूसरा नाम है।
अग्नि के दो गुण विशेष होते हैः-
1. वस्तु को जला कर नष्ट कर देना
2. ऊर्जा देना।
2. ऊर्जा देना।
प्रभु ने हमारे शरीर में इसे जल में धारण करवाया है जिस का अर्थ है कि पित्त की अतिरिक्त गर्मी को जल नियन्त्रित करके उसे शरीर ऊर्जा के रूप में प्रयोग में लाता है। यह स्वाद में खट्टा, कड़वा व कसैला होता है। इसका रंग नीला, हरा व पीला हो सकता है।
यह शरीर में तरल पदार्थ के रूप में पाया जाता है। यह वज़न में वात की अपेक्षा भारी तथा कफ की तुलना में हल्का होता है। पित्त यूं तो सम्पूर्ण शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में रहता है लेकिन इसका मुख्य स्थान हृदय से नाभि तक है।
समय की दृष्टि से वर्ष के दौरान यह मई से सितम्बर तक तथा दिन में दोपहर के समय तथा भोजन पचने के दौरान पित्त अधिक मात्रा में बनता है। युवावस्था में शरीर में पित्त का निर्माण अधिक होता है।
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प्रकृतिः-
पित्त प्रधान व्यक्ति के मुँह का स्वाद कड़वा, जीभ व आंखों का रंग लाल,शरीर गर्म, पेशाब का रंग पीला होता है। ऐसे व्यक्ति को क्रोध अधिक आता है। उसे पसीना भी अधिक आएगा। कई बार ऐसा देखा गया है कि पित्त प्रधान व्यक्ति के बाल कम आयु में ही सफेद होने लगते हैं।
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कार्यः-
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कार्यः-
पित्त हमारे शरीर में निम्नलिखित कार्य करता हैः-
भोजन को पचाना।
नेत्र ज्योति।
त्वचा को कान्तियुक्त बनाना।
स्मृति तथा बुद्धि प्रदान करना।
भूख प्यास की अनुभूति करना।
मल को बाहर कर शरीर को निर्मल करना।
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नेत्र ज्योति।
त्वचा को कान्तियुक्त बनाना।
स्मृति तथा बुद्धि प्रदान करना।
भूख प्यास की अनुभूति करना।
मल को बाहर कर शरीर को निर्मल करना।
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लक्षणः-
युवावस्था में बाल सफेद होना।
नेत्र लाल या पीेले होना।
पेशाब का रंग लाल या पीला होना।
दस्त लगना।
नाखून पीले होना।
देह पीली होना।
नाक से रक्त बहना।
गर्म पेशाब आना।
पेशाब में जलन होना।
अधिक भूख लगना।
ठण्डी चीजें अच्छी लगना।
अधिक पसीना आना।
शरीर में फोड़े होना।
बेचैनी होना आदि।
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पित्त के कुपित होने के कारणः-
पित्त के कुपित होने के कारणः-
कड़वा, खट्टा, गर्म व जलन पैदा करने वाले भोजन का सेवन करना।
तीक्ष्ण द्रव्यों का सेवन करना। तला हुआ व अधिक मिर्च, मसालेदार भोजन करना।
अधिक परिश्रम करना। नशीले पदार्थों का सेवन करना। ज्यादा देर तक तेज धूप में रहना।
अधिक नमक का सेवन करना।
सन्तुलित पित्त जहाँ शरीर को बल व बुद्धि देता है, वहीं यदि इसका सन्तुलन बिगड़ जाए तो यह बहुत घातक सिद्ध होता है। कुपित पित्त से हमारे शरीर में कई प्रकार के रोग आते हैं।
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पित्त को हमारे शरीर में क्षेत्र व कार्य के आधार पर पाँच भागों में बाँटा गया है। ये इस प्रकार हैः-
पाचक पित्त
रंजक पित्त
साधक पित्त,
आलोचक पित्त
भ्राजक पित्त।
रंजक पित्त
साधक पित्त,
आलोचक पित्त
भ्राजक पित्त।
पित्त के इन सभी रूपों का शरीर में कार्य क्षेत्र अर्थात् ये कहाँ-कहाँ है, ये क्या कार्य करते हैं, इनके कुपित होने पर क्या रोग आते हैं, इनका उपचार कैसे सम्भव है, इन सब का विवरण नीचे दिया गया हैः-
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पाचक पित्तः-पाचक पित्त पंचअग्नियों (पाचक ग्रन्थियों) से निकलने वाले रसों का सम्मिश्रित रूप है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता पायी जाती है। ये पाँच रस इस प्रकार हैः-
लार ग्रन्थियों से बनने वाला लाररस।
आमाशय में बनने वाला आमाशीय रस। अग्नाशय का स्त्राव। पित्ताशय से बनने वाला पित्त रस। आन्त्र रस।
पाचक पित्त पक्कवाशय और आमाशय के बीच रहता है। इसका मुख्य कार्य भोजन में मिलकर उसका शोषण करना है। यह भोजन को पचा कर पाचक रस व मल को अलग-अलग करता है।
यह पक्कवाशय में रहते हुए दूसरे पाचक रसों को शक्ति देता है। शरीर को गर्म रखना भी इसका मुख्य कार्य है। जब पाचक पित्त शरीर में कुपित होता है तो शरीर में नीचे लिखे रोग हो सकते हैः-
जठराग्नि का मन्द होना
दस्त लगना
खूनी पेचिश
कब्ज बनना
मधुमेह
दस्त लगना
खूनी पेचिश
कब्ज बनना
मधुमेह
मोटापा
अम्लपित्त
अल्सर
शरीर में कैलस्ट्रोल का अधिक बनना
हृदय रोग
अम्लपित्त
अल्सर
शरीर में कैलस्ट्रोल का अधिक बनना
हृदय रोग
पाचक पित्त को नियन्त्रण करने के लिए नीचे लिखी क्रियाओं का साधक का अभ्यास करना होगा। यदि शरीर में पाचक पित्त सम अवस्था मे बनता है तो हमारा पाचन सुदृढ़ रहता है। जब शरीर में पाचन और निष्कासन क्रियाएं ठीक होती हैं तो हम ऊपर दिए गए रोगों से बच सकते हैं। इस पित्त को सन्तुलित करने के लिए नीचे दी गई क्रियाएं सहायक होंगीः-
शुद्धि क्रियाएंः-
कुंजल, शंख प्रक्षालन (नोटः-हृदय रोगियों के लिए निषेध है।
आसनः-
त्रिकोणासन, जानुशिरासन, कोणासन, सर्पासन, पादोतानासन,अर्धमत्स्येन्द्रासन, शवासन।
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प्राणायामः-अग्निसार, शीतली, चन्द्रभेदी, उड्डियान बन्ध व बाह्य कुम्भक का अभ्यास।
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प्राणायामः-अग्निसार, शीतली, चन्द्रभेदी, उड्डियान बन्ध व बाह्य कुम्भक का अभ्यास।
भोजनः-
सुपाच्य भोजन, सलाद, हरी सब्जियाँ तथा ताजे फलों का सेवन भी पाचक पित्त को सम अवस्था में रखने में सहायक है।
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रंजक पित्तः-
यह पित्त लीवर में बनता है और पित्ताशय में रहता है। रंजक पित्त का कार्य बड़ा ही अनूठा व रहस्यमयी है। हमारे शरीर में भोजन के पचने पर जो रस बनता है रंजक पित्त उसे शुद्ध करके उससे खून बनाने का कार्य करता है।
अस्थियों की मज्जा से जो रक्त कण बनते हैं उन्हें यह पित्त लाल रंग में रंगने का कार्य करता है। उसके बाद इसे रक्त भ्रमण प्रणाली के माध्यम से पूरे शरीर में पहुंचा दिया जाता है। यदि इस पित्त का सन्तुलन बिगड़ जाता है तो शरीर में लीवर से सम्बन्धित रोग आते हैं जैसे कि-पीलिया, अल्परक्तता तथा शरीर में कमजोरी आना अर्थात् शरीर की कार्य क्षमता कम हो जाना इत्यादि।
रंजक पित्त नीचे लिखी क्रियाओं के अभ्यास से नियन्त्रित होता है।
शुद्धि क्रियाएंः-
अनिमा, कुन्जल
आसनः-
त्रिकोणासन, पश्चिमोत्तानासन, कोणासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, मन्डूकासन, पवन मुक्तासन, आकर्ण धनुरासन
प्राणायामः-
कपाल भाति, अनुलोम-विलोम, बाह्य कुम्भक, अग्निसार तथा उडिडयान बन्ध का अभ्यास
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साधक पित्तः-
यह पित्त हृदय में रहता है। बुद्धि को तेज करता है प्रतिभा का निर्माण करता है। उत्साह एवं आनन्द की अनुभूति करवाता है। आध्यात्मिक शक्ति देता है। सात्विक वृत्ति का निर्माण करता है। ईष्र्या, द्वेष व स्वार्थ की भावना को समाप्त करता है। साधक पित्त के कुपित होने पर स्नायु तन्त्र तथा मानसिक रोग होने लगते हैं जैसे किः-
नीरसता
माईग्रेन
मूर्छा
अधरंग
अनिद्रा
उच्च व निम्न रक्तचाप
हृदय रोग
अवसाद
माईग्रेन
मूर्छा
अधरंग
अनिद्रा
उच्च व निम्न रक्तचाप
हृदय रोग
अवसाद
नीचे लिखी क्रियाओं के अभ्यास से साधक पित्त सन्तुलित रहता है।
शुद्धि क्रियाएंः-सूत्र नेति, जल नेति, कुंजल आदि।
आसनः-
सूर्य नमस्कार पहली व बारवीं स्थिति, शशांक आसन, शवासन, योग निद्रा।
सूर्य नमस्कार पहली व बारवीं स्थिति, शशांक आसन, शवासन, योग निद्रा।
प्राणायामः-
अनुलोम-विलोम,
भ्रामरी व नाड़ी शोधन,
उज्जायी प्राणायाम
ध्यान
अनुलोम-विलोम,
भ्रामरी व नाड़ी शोधन,
उज्जायी प्राणायाम
ध्यान
अन्य सुझावः-
आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना, महापुरुषों के प्रवचन सुनना, आत्म-चिन्तन करना तथा लोकहित के कार्य करना।
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आलोचक पित्तः-
यह पित्त आंखों में रहता है। देखने की क्रिया का संचालन करता है। नेत्र ज्योति को बढ़ाना तथा दिव्य दृष्टि को बनाए रखना इसके मुख्य कार्य हैं। जब आलोचक पित्त कुपित होता है तो नेत्र सम्बन्धी दोष शरीर में आने लगते हैं यथा नज़र कमजोर होना, आंखों में काला मोतिया व सफेद मोतिया के दोष आना। इस पित्त को नियन्त्रित करने के लिये साधक को नीचे लिखी क्रियाओं का अभ्यास करना चाहियेः-
शुद्धि क्रियाएंः- आई वाश कप से प्रतिदिन आंखें साफ करें। नेत्रधोति का अभ्यास करें। मुँह में पानी भरकर आँखों में शुद्ध जल के छींटे लगाएं। दोनो आई वाश कपों में पानी भरें, तत्पश्चात् आई वाश कप में आंखों को डुबो कर आंख की पुतलियों को तीन-चार बार ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं व वृत्ताकार दिशा में घुमाएं। इसके लिए शुद्ध जल या त्रिफले के पानी का प्रयोग कर सकते हैं।
आसनः- कोणासन, उष्ट्रासन, भुजंगासन, धनुर व मत्स्यासन, ग्रीवा चालन, शवासन तथा नेत्र सुरक्षा क्रियाएं।
प्राणायामः-गहरे लम्बे श्वास, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी, मूर्छा प्राणायाम।
ध्यानः-प्रतिदिन 10 मिनट ध्यान में बैठें।
भोजन हरी व पत्तेदार सब्जियों का सेवन अधिक करें।
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भ्राजक पित्तः-
यह पित्त सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में रहता है। भ्राजक पित्त हमारे शरीर में विभिन्न कार्य करता है जैसे कि त्वचा को कान्तिमान बनाना, शरीर को सौन्दर्य प्रदान करना, विटामिन डी को ग्रहण करना तथा वायुमण्डल में पाए जाने वाले रोगाणुओं से शरीर की रक्षा करना। भ्राजक पित्त के कुपित होने पर शरीर में नीचे लिखे रोग आने की सम्भावना बनी रहती है।
त्वचा पर सफेद तथा लाल चकत्तों का दोष होना।
चर्म रोग का होना।
शरीर में फोड़ा, फुन्सी होना।
एग्जिमा।
त्वचा का फटना आदि।
भ्राजक पित्त को शरीर में सम अवस्था में रखने के लिए नीचे लिखी क्रियाएं करनी चाहिए।
चर्म रोग का होना।
शरीर में फोड़ा, फुन्सी होना।
एग्जिमा।
त्वचा का फटना आदि।
भ्राजक पित्त को शरीर में सम अवस्था में रखने के लिए नीचे लिखी क्रियाएं करनी चाहिए।
शुद्धि क्रियाएंः-कुंजल, नेति व शंख प्रक्षालन।
आसनः- सूर्य नमस्कार, नौकासन, चक्रासन, हस्तपादोत्तानासन
प्राणायामः-गहरे लम्बे श्वास, प्लाविनी, तालबद्ध व नाड़ी शोधन प्राणायाम तथा तीनों बन्धों का बाह्य व आन्तरिक कुम्भक के साथ अभ्यास करें।
नोटः-हृदय रोगी के लिए कुम्भक निषेध है।
विशेष क्रियाः-पूरे शरीर में तेल की मालिश करें। सर्दी के मौसम में सूर्य स्नान करें।
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पित्त के शमन में भारतीय गाय का शुद्ध देशी घी जो दही बिलोकर, मक्खन को गर्म कर बनाया जाता है बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है
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