Wednesday, September 2, 2015

आयुर्वेद (HISTORY OF MEDICAL SCIENCE IN WORLD)

आयुर्वेद (HISTORY OF MEDICAL SCIENCE IN WORLD)

एक बार प्रसिद्ध आयुर्वेद चिकित्सक पं. शिव शर्मा से एक ऐलौपैथी चिकित्सक ने प्रश्न किया, ‘आयुर्वेद और एलोपैथी में क्या अंतर है?‘ इस प्रश्न के उत्तर में पं. शिव शर्मा ने कहा, ‘जब आपके क्लीनिक में कोई व्यक्ति आता है तो कहते हैं एक पेशेन्ट (रोगी) आया है। परन्तु वास्तव में उसका अर्थ है ठ्ठ द्यदृद्वदढ़ड्ढ, ठ्ठद ड्ढठ्ठद्ध, ठ्ठ ददृद्मड्ढ, ठ्ठ द्मद्यदृथ्र्ठ्ठड़ण्‌, ठ्ठ ण्ठ्ठदड्ड, ठ्ठ थ्ड्ढढ़ यानी एक अंग आता है। जबकि वैद्य के पास कोई रोगी आता है तो वह व्यक्ति, उसका आहार-विहार, पृष्ठभूमि सब आता है।‘
यह वार्तालाप स्वास्थ्य विज्ञान का विचार करते समय भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टि के अन्तर को स्पष्ट करता है। हमारे यहां स्वास्थ्य का विचार करते समय मात्र शरीर ही नहीं अपितु स्वास्थ्य के साथ विचार, भावना, जलवायु, परिवेश आदि सबका विचार किया गया। मनुष्य को दु:ख दोनों प्रकार का होता है। शरीर में भी रोग होते हैं तथा मन में भी। अत: रोगों का विभाजन किया गया-
(१) आधि- मन के रोग
(२) व्याधि-शरीर के रोग
स्वास्थ्य का विचार करते समय मात्र शरीर के धरातल पर सोचने से काम नहीं चलेगा, अपितु अनेक स्तरों पर विचार करना पड़ेगा। योग वाशिष्ठ में रोगों का विश्लेषण करते हुए महर्षि वशिष्ठ श्रीराम से कहते हैं- रोगों के दो प्रकार होते हैं, एक आधीज है तथा दूसरे अनाधिज। आधीज रोगों के भी दो प्रकार होते हैं
(१) सामान्य-वे रोग जो दुनिया से दैनिक व्यवहार करते समय जो बार-बार तनाव उत्पन्न होता है, उस तनाव के परिणामस्वरूप पैदा होते हैं।
(२) सार-यानी जिसमें से सभी को गुजरना है, किसी को छूट नहीं है, जैसे जन्म एवं मृत्यु।
अनाधिज-वे रोग अनाधिज कहलाते हैं जो किसी मानसिक तनाव में उत्पन्न नहीं होते, जैसे चोट (क्ष्दत्र्द्वद्धन्र्‌) संक्रमण (क्ष्दढड्ढड़द्यत्दृद, च्र्दृन्त्दद्म), यह दवा के माध्यम से ठीक होते हैं।
श्रीराम के प्रश्न करने पर कि आधीज व्याधि में कैसे परिवर्तित होती है। इसका उत्तर देते हुए महर्षि वशिष्ठ कहते हैं, ‘मनुष्य के मन में अनेक लालसाएं, वासनायें रहती हैं, इनकी पूर्ति न होने पर मन क्षुब्ध होता है। मन के क्षुब्ध होने से प्राण क्षुब्ध होता है। यह क्षु◌ुब्ध प्राण नाड़ी तंत्र में असंयम रूप से प्रवाहित होता है, जैसे कोई घायल पशु अस्त-व्यस्त भागता है। प्राण के इस प्रकार के व्यवहार के कारण स्नायु मंडल अव्यवस्थित हो जाता है और फिर शरीर में कुजीर्णत्व (ध्र्द्धदृदढ़ ड्डत्ढ़ड्ढद्मद्यत्दृद), अजीर्णत्व (ग़्दृद ड्डत्ढ़ड्ढद्मद्यत्दृद) होता है और इस कारण कालान्तर में शरीर में खराबी आ जाती है। इसे ही व्याधि कहते हैं।
(१) भावना तथा विचार की शुद्धि व नियमन हेतु विशेष रूप से योग विज्ञान सहयोगी है।
(२) शरीर के स्तर पर चिकित्सा हेतु आयुर्वेद एवं अन्य पद्धतियां विकसित हुएं। आयुर्वेद में शरीर रचना, रोगोत्पत्ति के कारण, उनके प्रकार, रोगी परीक्षण, औषधि योजना, औषधि निर्माण, शल्य चिकित्सा आदि के द्वारा मनुष्य को निरोगी व सुखी करने हेतु प्रयत्न किए गए।
चिकित्सा विज्ञान के विकास का इतिहास भारत में काफी पुराना है। चरक संहिता के अनुसार व्रह्मा ने प्रजापति को सर्वप्रथम आयुर्वेद का ज्ञान दिया (सूत्र स्थान-१/४५) और उनसे अश्विनी कुमारों को प्राप्त हुआ।
पुराणों में अश्विनी कुमार देवताओं के चिकित्सक के रूप में प्रसिद्ध हैं। चिकित्सा विज्ञान में उनके अनेक कार्य प्रसिद्ध रहे हैं, जैसे यज्ञ में कटे अश्व के सिर को पुन: जोड़ा, पूषन्‌ के दांत टूटने पर नए लगाये, च्यवन ऋषि की नष्ट हुई नेत्रज्योति पुन: वापस दिलायी, उनका वार्धक्य दूर किया आदि। अश्विनी कुमार से इन्द्र को तथा उनसे भारद्वाज ऋषि, उनसे आत्रेय पुनर्वास, उनके शिष्य अग्निवेश, भेल, हारीत आदि को यह ज्ञान प्राप्त हुआ और आगे भी यह परम्परा चलती रही। इस परम्परा को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
(१) धन्वंतरि परम्परा (२) आत्रेय परम्परा
आत्रेय परम्परा में काय चिकित्सा की प्रधानता है तथा इस विषय के प्रसिद्ध आचार्य चरक हुए, जिनकी ‘चरक संहिता‘ प्रसिद्ध है।
धन्वंतरि परम्परा में शल्य चिकित्सा की प्रधानता रही तथा इस विषय के प्रसिद्ध आचार्य सुश्रुत की ‘सुश्रुत संहिता‘ प्रसिद्ध है।
चिकित्सा विज्ञान का विचार करते समय शरीर शास्त्र, औषधि निर्माण, औषधियों के प्रकार, गुण आदि का गहरा विचार किया गया। उसकी कुछ जानकारी नीचे दी जा रही है। इससे ध्यान में आएगा कि जब पाश्चात्य देशों में इस बारे में सोचना संभव नहीं था, हमारे यहां उस समय कितना सूक्ष्म विश्लेषणं किया गया था। कुछ प्रमुख बातों की संक्षेप में जानकारी हम यहां दे रहे हैं-
(१) स्वास्थ्य- चरक संहिता में स्वस्थ मनुष्य की दी गई परिभाषा आधुनिक चिकित्सा शास्त्र से अधिक व्यापक तथा उपयुक्त है।
समदोष: समाग्निश्च समधातुमलक्रिय:।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमना: स्वस्थो इत्यमिधीयते॥ -चरक संहिता
अर्थात्‌-जिसका त्रिदोष (वात, कफ, पित्त), सप्त धातु, मल प्रवृत्ति आदि क्रियाएं सन्तुलित अवस्था में हो, साथ ही आत्मा, इन्द्रिय एवं मन प्रसन्न स्थिति में हो, वही स्वस्थ मनुष्य कहलाता है।
(२) शरीर रचना में सुश्रुत संहिता में सुश्रुत शारीरे ५,६ के अनुसार शरीर रचना में मुख्य बातें निम्न हैं:-
त्वचा- (च्त्त्त्द-७), कला- (च्द्वडद्मद्यद्धठ्ठद्यठ्ठ दृढ द्यण्ड्ढ ड्ढथ्ड्ढथ्र्ड्ढदद्यद्म दृढ ण्द्वथ्र्ठ्ठद डदृड्डन्र्‌-७), आशया- (ङड्ढड़त्द्रत्ड्ढदद्य ध्ड्ढद्मद्मड्ढथ्द्म-७), धातु - (च्ण्ड्र्ढ घ्द्धत्थ्र्ठ्ठद्धन्र्‌ ढथ्द्वत्ड्डद्म, ख्द्वत्ड़ड्ढद्म ठ्ठदड्ड त्दढ़द्धड्ढड्डत्ड्ढदद्यद्म दृढ द्यण्ड्ढ डदृड्डन्र्‌-७), शिरा- (ठ्ठद्धद्यड्ढद्धत्ड्ढद्म-७००), पेशी- (ठ्ठ त्त्त्दड्ड दृढ थ्र्द्वद्मड़थ्ड्ढद्म-५००), स्नायु- (द्यड्ढदड्डदृदद्म-९००), अस्थीनि- (एदृदड्ढद्म-३००), संधिया-(ख्दृत्दद्यद्म-२१०), मर्म- (ज्त्द्यठ्ठथ्द्म-१०७), धमनियां- (ध्ड्ढत्दद्म-२४), दोष- (क़्त्द्मदृद्धड्डड्ढद्ध दृढ द्यण्द्धड्ढड्ढ ण्द्वथ्र्दृद्वद्धद्म-३), मल- (क्ष्थ्र्द्रद्वद्धड्ढ द्मड्ढड़द्यद्धद्यत्दृदद्म-३), स्रोतांस- (ग़्द्वद्यद्धत्थ्र्ड्ढदद्य ड़ठ्ठदठ्ठथ्द्म-९), कण्डरा- (च्त्दड्ढध्र्द्म-६), जाल- (ज़्दृध्ड्ढद द्यड्ढन्द्यद्वद्धड्ढद्म-१६), कूर्चा-(एद्वदड्डथ्ड्ढद्म दृढ थ्र्द्वद्मड़द्वथ्ठ्ठद्ध डदृदड्ढद्म-१६), रज्जव- (ख्र्दृदढ़ द्धदृद्रड्ढ-४), शेवन्य - (च्द्यत्द्यड़ण्‌ थ्त्त्त्ड्ढ ढदृद्धथ्र्ठ्ठद्यत्दृदद्म-७), संघात- (क्दृथ्थ्ड्ढड़द्यत्दृदद्म दृढ डदृदड्ढद्म-१४), सीमन्त-(द्रठ्ठद्यत्दढ़ थ्त्दड्ढद्म-१४), योगवह स्रोतांसि- (च्द्रड्ढड़त्ठ्ठथ्‌ ड़ठ्ठदठ्ठथ्द्म-२२) आंत्र- (क्ष्दद्यड्ढद्मद्यत्दड्ढद्म-२), रोमकूप- (क्तठ्ठत्द्ध द्रदृद्धड्ढद्म दृढ द्यण्ड्ढ च्त्त्त्द ३१/२ क्द्धदृद्धड्ढ)
(३) हृदय के कार्य- हृदय के संबंध में पश्चिमी देशों का ज्ञान बहुत अर्वाचीन काल का है। विलियम हार्वे नामक व्रिटिश वैज्ञानिक ने सन्‌ १६२८ में अपने प्रयोगों से यह प्रतिपादित किया था कि रक्त का पहुंचना हृदय के लिए आवश्यक है। परन्तु वह यह नहीं बता सका कि रक्त कैसे पहुंचता है। कुछ वर्षों बाद सन्‌ १६६९ में इटालियन वैज्ञानिक मार्शेलों मल्फीगी ने उस प्रक्रिया को उद्घाटित किया, जिससे रक्त हृदय में पहुंचता है।
परन्तु भारत में ७ हजार से अधिक वर्षों पूर्व ‘शतपथ व्राह्मण‘ में हृदय के द्वारा होने वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया का वर्णन मिलता है। उसमें कहा गया है-
हरतेर्दतातेरयतेर्हृदय शब्द:- निरुक्त
अर्थात्‌-लेना, देना तथा घुमाना इन तीन क्रियाओं को हृदय शब्द अभिव्यक्त करता है।
हृ (हरणे) उ द्यदृ द्धड्ढड़ड्ढत्ध्ड्ढ, द (दाने) उ द्यदृ घ्द्धदृद्रड्ढथ्‌ य (इण-गतौ)। द्यदृ क्त्द्धड़द्वथ्ठ्ठद्यड्ढ उ हृदयम्‌-शतपथ व्राह्मणम्‌
इसी प्रकार से नाड़ी ज्ञानम्‌ ग्रंथ में लिखा है-
तत्संकोचं च विकासं च स्वत: कुर्यात्पुन: पुन:
अर्थात्‌-हृदय स्वयं ही संकोच और फैलाव की क्रिया बारम्बार करता रहेगा। एक-दूसरे ग्रंथ भेल संहिता में वर्णन आता है-
हृदो रसो निस्सरित तस्मादेति च सर्वश:।
सिराभिर्हृदयं वैति तस्मात्तत्प्रभवा: सिरा:॥
अर्थात्‌- हृदय से रक्त निकलता है, वहां से ही शरीर के सभी भागों में जाता है, रक्त नलिकाओं के द्वारा हृदय को जाता है, रक्त नलिका भी उसी से बनी हैं।
(४) रोग के कारण- आयुर्वेद में रोग निदान तथा चिकित्सा का आधार त्रिदोष सिद्धांत है।
वात, पित्त और कफ जब संतुलित रहते हैं तो शरीर स्वस्थ रहता है। जब असंतुलित होते हैं तो रोग का कारण बनते हैं।
यह त्रिदोष समग्र शरीर में व्याप्त रहते हैं तथापि शरीर में कुछ विशेष स्थान पर ये ज्यादा रहते हैं। क्रिया के आधार पर प्रत्येक दोष के पांच भाग किए गये हैं और उनका परिणाम भी बताया गया है।
जैसे-वात - यह पांच प्रकार के कार्य करता है-
(१) प्राण - मुख्यत: श्वासोच्छवास प्रवर्तक (२) उदान-मुख्यत: वाक्प्रवर्तक (३) व्यान- शरीर रसों का वाहक (४) समान- अन्नपाचन आदि (५) अपान-मल मूत्रादि विसर्जन
पित्त :- इसके भी पांच कार्य हैं-
(१) पाचक- अन्न पाचन, सार का विभाजन तथा शरीर उष्णता, (२) रंजक- अन्न रस का रक्त वर्ण कर रक्त के रूप में परिणत करने वाले (३) साधक-बुद्धि और मेधावर्धक, (४) आलोचक- दृष्टि में सहायक, (५) भ्राजक-वर्ण प्रसाधनकर्ता
कफ:- इसके भी पांच कार्य हैं-
(१) अवलम्बक-शक्ति और ऊर्जा प्रदाता, (२) क्लेदक- अन्न क्लेदन कर्ता, (३) बोधक-रुचि का बोध कराने वाला, (४) तर्पक-नेत्र और ज्ञानेद्रियों का नियंत्रक, (५) श्लेषक-सन्धि स्नेहन कर्ता।
रोग निवृत्ति हेतु दी जाने वाली वस्तु, वह चाहे प्राणी जन्य हो, वनस्पति हो या खनिज जन्य हो, सबसे रस गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव-ये पांच तत्व माने गए हैं और इनमें से प्रत्येक का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। अन्न के शरीर में पाचन तथा विलयन कर रस बनता है जो आगे चलकर रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र आदि सप्त धातुओं में परिवर्तित होता है। प्रत्येक धातु का शरीर में विलय या विसर्जन तीन रूप में होता है-स्थूल, सूक्ष्म और मल। इससे शरीर धीरे-धीरे विकसित होता है।
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में मिलता है।
आयुर्वेद चिकित्सा दो प्रकार से की जाती थी-
(अ) शोधन-पंचकर्म द्वारा, ये निम्न हैं-
(वमन)- मुंह से उल्टी करके दोष दूर करना, (२) विरेचन-मुख्यत: गुदा मार्ग से दोष निकालना, बस्ति (एनीमा)
(४) रक्तमोक्षण-जहरीली कोई चीज काटने पर या शरीर में खराब रक्त कहीं हो, तो उसे निकालना।
(५) नस्य- नाक द्वारा स्निग्ध चीज देना
(ब) शमन- औषधि द्वारा चिकित्सा, इसकी परिधि बहुत व्याप्त थी। आठ प्रकार की चिकित्साएं बताई हैं।
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आयुर्वेद चिकित्सा दो प्रकार से की जाती थी-
(अ) शोधन-पंचकर्म द्वारा, ये निम्न हैं-
(१) वमन- मुंह से उल्टी करके दोष दूर करना, (२) विरेचन-मुख्यत: गुदा मार्ग से दोष निकालना, (३) बस्ति (एनीमा) (४) रक्तमोक्षण-जहरीली चीज काटने पर या शरीर में खराब रक्त कहीं हो, तो उसे निकालना। (५) नस्य- नाक द्वारा स्निग्ध चीज देना
(ब) शमन- औषधि द्वारा चिकित्सा, इसकी परिधि बहुत व्याप्त थी। आठ प्रकार की चिकित्साएं बताई गई हैं।
(१) काय चिकित्सा-सामान्य चिकित्सा
(२) कौमार भृत्यम्‌-बालरोग चिकित्सा
(३) भूत विद्या- मनोरोग चिकित्सा
(४) शालाक्य तंत्र- उर्ध्वांग अर्थात्‌ नाक, कान, गला आदि की चिकित्सा
(५) शल्य तंत्र-शल्य चिकित्सा
(६) अगद तंत्र-विष चिकित्सा
(७) रसायन-रसायन चिकित्सा
(८) बाजीकरण-पुरुषत्व वर्धन
औषधियां:- चरक ने कहा, जो जहां रहता है, उसी के आसपास प्रकृति ने रोगों की औषधियां दे रखी हैं। अत: वे अपने आसपास के पौधों, वनस्पतियों का निरीक्षण व प्रयोग करने का आग्रह करते थे। एक समय विश्व के अनेक आचार्य एकत्रित हुए, विचार-विमर्श हुआ और उसकी फलश्रुति आगे चलकर ‘चरक संहिता‘ के रूप में सामने आई। इस संहिता में औषधि की दृष्टि से ३४१ वनस्पतिजन्य, १७७ प्राणिजन्य, ६४ खनिज द्रव्यों का उल्लेख है। इसी प्रकार सुश्रुत संहिता में ३८५ वनस्पतिजन्य, ५७ प्राणिजन्य तथा ६४ खनिज द्रव्यों से औषधीय प्रयोग व विधियों का वर्णन है। इनसे चूर्ण, आसव, काढ़ा, अवलेह आदि अनेक में रूपों औषधियां तैयार होती थीं।
इससे पूर्वकाल में भी ग्रंथों में कुछ अद्भुत औषधियों का वर्णन मिलता है। जैसे बाल्मीकी रामायण में राम-रावण युद्ध के समय जब लक्ष्मण पर प्राणांतक आघात हुआ और वे मूर्छित हो गए, उस समय इलाज हेतु जामवन्त ने हनुमान जी के पास हिमालय में प्राप्त होने वाली चार दुर्लभ औषधियों का वर्णन किया।
मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।
सुवर्णकरणीं चैव सन्धानी च महौषधीम्‌॥
युद्धकाण्ड ७४-३३
(१) विशल्यकरणी-शरीर में घुसे अस्त्र निकालने वाली
(२) सन्धानी- घाव भरने वाली
(३) सुवर्णकरणी-त्वचा का रंग ठीक रखने वाली
(४) मृतसंजीवनी-पुनर्जीवन देने वाली
चरक के बाद बौद्धकाल में नागार्जुन, वाग्भट्ट आदि अनेक लोगों के प्रयत्न से रस शास्त्र विकसित हुआ। इसमें पारे को शुद्ध कर उसका औषधीय उपयोग अत्यंत परिणामकारक रहा। इसके अतिरिक्त धातुओं, यथा-लौह, ताम्र, स्वर्ण, रजत, जस्त को विविध रसों में डालना और गरम करना-इस प्रक्रिया से उन्हें भस्म में परिवर्तित करने की विद्या विकसित हुई। यह भस्म और पादपजन्य औषधियां भी रोग निदान में काम आती हैं।
शल्य चिकित्सा- कुछ वर्षों पूर्व इंग्लैण्ड के शल्य चिकित्सकों के विश्व प्रसिद्ध संगठन ने एक कैलेण्डर निकाला, उसमें विश्व के अब तक के श्रेष्ठ शल्य चिकित्सकों (सर्जन) के चित्र दिए गए थे। उसमें पहला चित्र आचार्य सुश्रुत का था तथा उन्हें विश्व का पहला शल्य चिकित्सक बताया गया था।
वैसे भारतीय परम्परा में शल्य चिकित्सा का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारतीय चिकित्सा के देवता धन्वंतरि को शल्य क्रिया का भी जनक माना जाता है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में हमारे देश के चिकित्सकों ने अच्छी प्रगति की थी। अनेक ग्रंथ रचे गए। ऐसे ग्रंथों के रचनाकारों में सुश्रुत, पुष्कलावत, गोपरक्षित, भोज, विदेह, निमि, कंकायन, गार्ग्य, गालव, जीवक, पर्वतक, हिरण्याक्ष, कश्यप आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन रचनाकारों के अलावा अनेक प्राचीन ग्रंथों से इस क्षेत्र में भारतीयों की प्रगति का ज्ञान होता है।
ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में दिल, पेट तथा वृक्कों के विकारों का विवरण है। इसी तरह शरीर में नवद्वारों तथा दस छिद्रों का विवरण दिया गया है। वैदिक काल के शल्य चिकित्सक मस्तिष्क की शल्य क्रिया में निपुण थे। ऋग्वेद (८-८६-२) के अनुसार जब विमना और विश्वक ऋषि उद्भ्रान्त हो गए थे, तब शल्य क्रिया द्वारा उनका रोग दूर किया गया। इसी ग्रंथ में नार्षद ऋषि का भी विवरण है। जब वे पूर्ण रूप से बधिर हो गए तब अश्विनी कुमारों ने उपचार करके उनकी श्रवण शक्ति वापस लौटा दी थी। नेत्र जैसे कोमल अंग की चिकित्सा तत्कालीन चिकित्सक कुशलता से कर लेते थे। ऋग्वेद (१-११६-११) में शल्य क्रिया द्वारा वन्दन ऋषि की ज्योति वापस लाने का उल्लेख मिलता है।
शल्य क्रिया के क्षेत्र में बौद्ध काल में भी तीव्र गति से प्रगति हुई। ‘विनय पिटक‘ के अनुसार राजगृह के एक श्रेष्ठी के सर में कीड़े पड़ गए थे। तब वैद्यराज जीवक ने शल्य क्रिया से न केवल वे कीड़े निकाले बल्कि इससे बने घावों को ठीक करने के लिए उन पर औषधि का लेप किया था। हमारे पुराणों में भी शल्य क्रिया के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गई। ‘शिव पुराण‘ के अनुसार जब शिव जी ने दक्ष का सर काट दिया था तब अश्विनी कुमारों ने उनको नया सर लगाया था। इसी तरह गणेश जी का मस्तक कट जाने पर उनके धड़ पर हाथी का सर जोड़ा गया था। ‘रामायण‘ तथा ‘महाभारत‘ में भी ऐसे कुछ उदाहरण मिलते हैं। ‘रामायण‘ में एक स्थान पर कहा है कि ‘याजमाने स्वके नेत्रे उद्धृत्याविमना ददौ।‘ अर्थात्‌ आवश्यकता पड़ने पर एक मनुष्य की आंख निकालकर दूसरे को लगा दी जाती थी। (बा.रा.-२-१६-५) ‘महाभारत‘ के सभा पर्व में युधिष्ठिर व नारद के संवाद से शल्य चिकित्सा के ८ अंगों का परिचय मिलता है।
वैद्य सबल सिंह भाटी कहते हैं कि सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा का प्रशिक्षण गुरुशिष्य परम्परा के माध्यम से दिया जाता था। मुर्दों तथा पुतलों का विच्छेदन करके व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता था। प्रशिक्षित शल्यज्ञ विभिन्न उपकरणों तथा अग्नि के माध्यम से तमाम क्रियाएं सम्पन्न करते थे। जरूरत पड़ने पर रोगी को खून भी चढ़ाया जाता था। इसके लिए तेज धार वाले उपकरण शिरावेध का उपयोग होता था।
आठ प्रकार की शल्य क्रियाएं- सुश्रुत द्वारा वर्णित शल्य क्रियाओं के नाम इस प्रकार हैं (१) छेद्य (छेदन हेतु) (२) भेद्य (भेदन हेतु) (३) लेख्य (अलग करने हेतु) (४) वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए) (५) ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए) (६) अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए) (७) विश्रव्य (द्रव निकालने के लिए) (८) सीव्य (घाव सिलने के लिए)
सुश्रुत संहिता में शस्त्र क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। आजकल की शल्य क्रिया में ‘फौरसेप्स‘ तथा ‘संदस‘ यंत्र फौरसेप्स तथा टोंग से मिलते-जुलते हैं। सुश्रुत के महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदसों, २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। पूर्व में जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं-
अर्द्धआधार, अतिमुख, अरा, बदिशा, दंत शंकु, एषणी, कर-पत्र, कृतारिका, कुथारिका, कुश-पात्र, मण्डलाग्र, मुद्रिका, नख शस्त्र, शरारिमुख, सूचि, त्रिकुर्चकर, उत्पल पत्र, वृध-पत्र, वृहिमुख तथा वेतस-पत्र।
आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने इतना जोर दिया है तथा इसके लिए ऐसे साधनों का वर्णन किया है कि आज के शल्य चिकित्सक भी दंग रह जाएं। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है। ‘भोज प्रबंध‘ (९२७ ईस्वी) में बताया गया है कि राजा भोज को कपाल की शल्य-क्रिया के पूर्व ‘सम्मोहिनी‘ नामक चूर्ण सुंघाकर अचेत किया गया था।
चौदह प्रकार की पट्टियां- इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थि-भंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, उनके ग्रंथ में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा नेत्र-रोगों के २६ प्रकार बताए गए हैं।
सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है। आधुनिकतम विधियों का भी उल्लेख इसमें है। कई विधियां तो ऐसी भी हैं जिनके सम्बंध में आज का चिकित्सा शास्त्र भी अनभिज्ञ है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शल्य क्रिया अत्यंत उन्नत अवस्था में थी, जबकि शेष विश्व इस विद्या से बिल्कुल अनभिज्ञ था।

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