Sunday, October 17, 2021

पाकिस्तान के विचार का जनक सर सैयद अहमद खान था।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ रमेशचंद्र मजूमदार कहते हैं- “सर सैय्यद अहमद खान ने दो राष्ट्रों के सिद्धांतों का प्रचार किया जो बाद में अलीगढ़ आंदोलन की नींव बना।

सर सैय्यद भले ही मुस्लिमों में अंग्रेज़ी शिक्षा के पक्षधर थे , पर मुस्लिम धर्म, इतिहास परंपरा, राज्य और उसके प्रतीकों और भाषा पर उन्हें बहुत अभिमान था। 1867 में अंग्रेज़ सरकार ने हिंदी और देवनागरी के प्रयोग का आदेश जारी किया। सर सैयद इस बात से बहुत बैचेन थे कि अब भारत में इस्लामी राज्य खोने के पश्चात हमारी भाषा भी गई। तब उन्होंने डिफेन्स ऑफ उर्दू सोसायटी की स्थापना की। डॉ इकराम ने कहा है कि आधुनिक मुस्लिम अलगाव का शुभारंभ सर सैय्यद के हिंदी बनाम उर्दू का मुद्दा हाथ में लेने से हुआ।
14 मार्च 1888 को मेरठ में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हिंदू-मुस्लिम मिलकर इस देश पर शासन नहीं कर सकते । अपने भाषण में उन्होंने कहा- “सबसे पहला प्रश्न यह है कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में आनेवाली है ? मान लीजिए, अंग्रेज़ अपनी सेना, तोपें, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोड़कर चले गए तो इस देश का शासक कौन होगा ? क्या उस स्थिति में यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक ही सिंहासन पर बैठें ? निश्चित ही नहीं। उसके लिए आवश्यक होगा कि दोनों एक दूसरे को जीतें, एक दूसरे को हराएँ । दोनों सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह सिद्धांत व्यवहार में नहीं लाया जा सकेगा।”
उन्होंने आगे कहा- “इसी समय आपको इस बात पर ध्यान में देना चाहिए कि मुसलमान हिंदुओं से कम भले हों मगर वे दुर्बल हैं, ऐसा मत समझिए। उनमें अपने स्थान को टिकाए रखने का सामर्थ्य है। लेकिन समझिए कि नहीं है तो हमारे पठान बंधु पर्वतों और पहाड़ों से निकलकर सरहद से लेकर बंगाल तक खून की नदियाँ बहा देंगे। अंग्रेज़ों के जाने के बाद यहाँ कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारी नहीं बनाएगा तब तक इस देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती।”
उन्होंने कहा कि भारत में प्रतिनिधिक सरकार नहीं आ सकती , क्योंकि प्रतिनिधिक शासन के लिए शासक और शासित लोग एक ही समाज के होने चाहिए।”
मुसलमानों को उत्तेजित करते हुए उन्होंने कहा- “जैसे अंग्रेज़ों ने यह देश जीता वैसे ही हमने भी इसे अपने आधीन रखकर गुलाम बनाया हुआ था। …अल्लाह ने अंग्रेज़ों को हमारे शासक के रूप में नियुक्त किया हुआ है। …उनके राज्य को मज़बूत बनाने के लिए जो करना आवश्यक है , उसे ईमानदारी से कीजिए ( अर्थात ऐसे काम करिए कि जिससे अंग्रेज भारत को छोड़ने सकें क्योंकि उनका यहां बने रहना ही मुसलमानों के हित में है ) । …आप यह समझ सकते हैं मगर जिन्होंने इस देश पर कभी शासन किया ही नहीं, जिन्होंने कोई विजय हासिल की ही नहीं, उन्हें (हिंदुओं को) यह बात समझ में नहीं आएगी। मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने बहुत से देशों पर राज्य किया है । आपने 700 साल भारत पर राज किया है। अनेक सदियाँ कई देशों को अपने आधीन रखा है। मैं आगे कहना चाहता हूँ कि भविष्य में भी हमें किताबी लोगों की शासित प्रजा बनने के बजाय (अनेकेश्वरवादी) हिंदुओं की प्रजा नहीं बनना है।”
2 दिसंबर 1887 को वह लखनऊ में मुस्लिम समाज के सामने यह बताते हुए स्पष्ट करते हैं कि किस तरह लोकतंत्र निरर्थक है ? वे कहते हैं- “कांग्रेस की दूसरी माँग वाइसरॉय की कार्यकारिणी के सदस्यों को चुनने की है। समझो ऐसा हुआ कि सारे मुस्लिमों ने मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट दिए तो हर एक को कितने वोट पड़ेंगे। यह तो तय है कि हिंदुओं की संख्या चार गुना ज़्यादा होने के कारण उनके चार गुना ज़्यादा सदस्य आएँगे, मगर तब मुस्लिमों के हित कैसे सुरक्षित रहेंगे। …अब यह सोचिए कि कुल सदस्यों में आधे सदस्य हिंदू और आधे मुसलमान होंगे और वे स्वतंत्र रूप से अपने अपने सदस्य चुनेंगे। मगर आज हिंदुओं से बराबरी करनेवाला एक भी मुस्लिम नहीं है।”
उन्होंने आगे कहा- “पल भर सोचें कि आप कौन हैं? आपका राष्ट्र कौन सा है? हम वे लोग हैं जिन्होंने भारत पर छः-सात सदियों तक राज किया है। हमारे हाथ से ही सत्ता अंग्रेज़ों के पास गई। हमारा (मुस्लिम) राष्ट्र उनके खून का बना है जिन्होंने सऊदी अरब ही नहीं, एशिया और यूरोप को अपने पाँवों तले रौंदा है। हमारा राष्ट्र वह है जिसने तलवार से एकधर्मीय भारत को जीता है। मुसलमान अगर सरकार के खिलाफ आंदोलन करें तो वह हिंदुओं के आंदोलन की तरह नरम नहीं होगा। तब आंदोलन के खिलाफ सरकार को सेना बुलानी पड़ेगी, बंदूकें इस्तेमाल करनी पड़ेंगी।जेल भरने के लिए नए कानून बनाने होंगे।”
हमीद दलवई ने उनके बारे में कहा था- “1887 बद्रुदीन तैयबजी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। उनसे कुछ मुद्धों पर सर सैयद के मतभेद थे। तब तैयबजी को लिखे पत्र में सर सैयद ने कहा था- “असल में कांग्रेस निशस्त्र गृहयुद्ध खेल रही है। इस गृहयुद्ध का मकसद यह है कि देश का राज्य किसके (हिंदुओंं या मुसलमानों) हाथों में आएगा। हम भी गृहयुद्ध चाहते हैं मगर वह निशस्त्र नहीं होगा। यदि अंग्रेज़ सरकार इस देश के आंतरिक शासन को इस देश के लोगों के हाथों में सौंपना चाहती है तो राज्य सौंपने से पहले एक स्पर्धा परीक्षा होनी चाहिए। जो इस स्पर्धा में विजयी होगा , उसी के हाथों में सत्ता सौंपी जानी चाहिए। लेकिन इस परीक्षा में हमें हमारे पूर्वजों की कलम इस्तेमाल करने देनी चाहिए। यह कलम सार्वभौमत्व की सनदें लिखने वाली असली कलम है (यानी तलवार)। इस परीक्षा में जो विजयी हो, उसे देश का राज दिया जाए।”
सावरकर जैसे महान विचारक और इतिहास की गहरी समझ रखने वाले नेता ने सर सैयद अहमद खान की इस विचारधारा का पहले दिन से विरोध करना आरंभ किया । जबकि कांग्रेस अपनी तुष्टिकरण की नीति के अंतर्गत सर सैयद अहमद खान को शिक्षा क्षेत्र के महारथी और एक उदारवादी महान नेता के रूप में स्थापित करती रही।
अलीगढ़ संस्थान के 1 अप्रैल 1890 के राज-पत्र में सर सैय्यद ने भविष्ययवाणी की थी- “यदि सरकार ने इस देश में जनतांत्रिक सरकार स्थापित की तो इस देश के विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में गृहयुद्ध हुए बिना नहीं रहेगा।” 1893 में एक लेख में उन्होंने धमकी दी थी- “इस राष्ट्र में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं लेकिन इसके बावजूद परंपरा यह है कि जब बहुसंख्यक उन्हें दबाने की कोशिश करते हैं तो वे हाथों में तलवारे ले लेते हैं। यदि ऐसा हुआ तो 1857 से भी भयानक आपत्ति आए बिना नहीं रहेगी।”
सर सैयद अहमद खान की इसी अलगाववादी और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की जनक विचारधारा ने आगे चलकर जिन्नाह का निर्माण किया। जिसने धर्म के आधार पर इस देश का विभाजन करवाया और कांग्रेस ने उसे अपनी सहमति व स्वीकृति प्रदान कर देश के साथ अपघात किया।
सावरकर जी ने सर सैयद अहमद खान और इन जैसे अलगाववादी नेताओं की चालों को बहुत पहले समझ लिया था । वह नहीं चाहते थे कि देश का किसी भी आधार पर बंटवारा हो। द्विराष्ट्रवाद की बात करने वाले सर सैयद अहमद खान जब 1887 में अपने भड़काऊ भाषण दे रहे थे , उस समय सावरकर जी मात्र 4 वर्ष के थे।

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