समाज में शौर्य की कमी कभी भी नहीं थी. महमूद गजनवी बार-बार लूटपाट मचाकर गजनी लौट जाता था, सो इसलिए नहीं कि वह भारतवर्ष पर आधिपत्य जमाने के प्रति उदासिन था. इस देश में, पंजाब और सिन्धु देश के कुछ अंचलों को छोडकर, किसी जनपद पर अधिकार करने में वह इसलिए समर्थ नहीं हो सका कि चारों ओर से उठने वाली हिन्दू प्रत्याक्रमणों की आंधी उसे उल्टे पांव लौट जाने पर विवश करती रही. यह स्मरण रहे कि गजनवी अपने समय का अनुपम सेनानी था और उसने भारत के बाहर दूर-दूर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया था.
किन्तु बाहुबल के होते हुए भी हिन्दू समाज ने बुद्धिबल से काम नहीं लिया. हिन्दू मनीषियों द्वारा रचित उस काल के प्रचुर साहित्य में कोई संकेत नहीं मिलता कि इस्लाम के स्वरूप को किसी ने पहचाना हो. न ही कोई ऐसा संकेत मिलता है कि ‘सूफी’ नामधारी बगुलाभगतों को उनकी करतूतों के कारण किसी ने धिक्कारा हो. सूफियों द्वारा बुलाया गया इस्लाम का ‘गाजी’ हार मानकर हट गया. किन्तु सुफी सिलसिले जमे रहे, बढते रहे और उनको धन तथा मान भारत के भीतर से मिलता रहा. इन सूफियों कि खानकाहों में बहुधा वे अबलाएं मिलती थी जिनका अपहरण गजनवी द्वारा हुआ था और जिनको उपहार के रूप में सूफियों को सौपां गया था. गजनवी द्वारा लूटा गया भारत का धन भी सूफियों ने प्रचुर मात्रा में पाया था. सूफी लोग आनन्द-विभोर होकर इस कामिनी-कांचन का उपभोग करते रहे. उन अबलाओं का आर्तनाद हिन्दू समाज ने नहीं सुना. इसके विपरीत, म्लेच्छों के हाथ पड़ जाने के कारण उन अबलाओं को त्याज्य मान लिया गया.
इसीलिए १५० वर्ष बाद मोहम्मद गौरी फिर इस्लाम के नारे लगाता हुआ भारतवर्ष की ओर बढ़ आया. अजमेर में गडा हुआ मुइनुद्दीन चिश्ती नाम का सूफी भी उसके साथ हो लिया. गौरी ११७८ ईसवी में आबू के निकट उस सेना से पिट कर भागा जिसका संचालन चौलुक्य-पति की विधवा साम्राज्ञी कर रही थी. दूसरी बार ११९१ में वही गौरी पृथ्वीराज चौहाण से पिट कर भागा. उस समय भारतवर्ष के चौलुक्य तथा चौहाण साम्राज्यों में इतना सामर्थ्य था कि वे गौरी का पीछा करते हुए इस्लाम द्वारा हस्तगत उत्तरांचल को लौटा लेते और गौरी तथा गजनी को रौंदते हुए उस काबे तक मार करते जहाँ से इस्लाम की महामारी बार-बार बढ़कर भारत के लिए विभीषिका बन जाती थी. इस्लाम का दावा था कि हिन्दूओं के मंदिर ईंट-चूने के बने हुए है, हिन्दूओं की देवमूर्तियां कोरे पाषाण-खण्ड हैं और उन मंदिरों तथा मूर्तियों में आत्मत्राण की कोई सामर्थ्य नहीं. इस तर्क का प्रत्युत्तर एक ही हो सकता था – लाहौर से लेकर काबे तक समस्त मस्जिदों का ध्वंस. तब इस्लाम की समझ में यह बात तुरन्त आ जाती कि उसके काबा में भी आत्मत्राण की कोई सामर्थ्य नहीं, वह भी ईंट-चूने का बना है, और उसके भीतर विद्यमान काले पत्थर का टुकडा केवल पत्थर का टुकडा ही है. बुद्धि द्वारा स्थिति का विश्लेषणन करने के कारण हिन्दू शौर्य निष्फल रहा. चिश्ती ने अजमेर में आकर अड्डा जमाया और गौरी को कहलवाया कि हिन्दू सेना को बल से नहीं, छल से ही जीता जा सकता है.
गौरी ने चिश्ती का हुक्म बजाया. ११९२ में वह जब फिर तरावडी के मैदान में आया तो चौहाण ने उस भगोडे को धिक्कारा. गौरी ने उत्तर दिया कि वह अपने बडे भाई मुइनुद्दीन के आदेश पार आया है और उसका आदेश पाए बिना नहीं लौट सकता. साथ ही उसने कहा कि पृथ्वीराज का संदेश उसने अपने बडे भाई के पास भेज दिया है तथा उस ओर से आदेश आने तक वह युद्ध से विरत रहेगा. राजपूत सेना ने शस्त्र खोल दिए और उसी रात को गौरी की सेना ने राजपूत सेना को छिन्न-भिन्न कर डाला. किन्तु किसी हिन्दू ने यह समझने का कष्ट नहीं किया कि काफिर के साथ छल करना इस्लाम के शास्त्र में विहित है. इस काल का साहित्य राजपूतों के शौर्य की गाथा सुनाता है, किन्तु इस्लाम के शास्त्र के विषय में वहाँ एक शब्द भी नहीं मिलता. फलस्वरूप चिश्ती आनन्द से अजमेर में बैठकर अपने ‘चमत्कार’ दिखलाता रहा. अजमेर के मंदिरों को ध्वस्त होते देखकर उसने अल्लाह का शुक्र बजाया. अल्लाह की फतह हुई थी. कुफ्र का मुँह काला. कोई आश्चर्य नहीं कि अल्लाह ने अजमेर को इस्लाम कि एक प्रमुख जियारत-गाह बना दिया. चिश्ती की मजार पर उबलते चावल, चढ़ने वाले फूल तथा संचित होने वाला धन अशंतः हिन्दूओं की देन है. किन्तु किसी हिन्दू ने आज तक यह जानने का कष्ट नहीं किया कि वहाँ पर गडा हुआ सूफी वस्तुतः क्या चीज़ था और उसने भारतभूमि के प्रति कितना बडा द्रोह किया था. इसका कारण यही है कि हिन्दू समाज ने इस्लाम को एक ‘धर्म’ मान लिया है.
- इतिहासकार-चिन्तक स्व. सीताराम गोयल
(स्रोत: ‘सैक्युलरिज्म: राष्ट्रद्रोह का दूसरा नाम’, पृ. ४५-४७)
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