Friday, April 24, 2020

वैदिक धर्म बुद्ध के बाद कि हैं?

अशोक के गिरनार और कालसी अभिलेख में हवन , यज्ञ आदि का जिक्र हुवा है , जिसमे अशोक ने यह लिखवाया है की :-
"" किसी जीव को मार कर हवन ( यज्ञ ) न किया जाये , आगे लिख है की पहले हमारी पाक शाला में अर्थात अशोक कि पाक शाला में लाखो जीवो की हत्या सुप के निम्मित की जाती थी। लेकिन जब यह शिलालेख लिखे जा रहे है तब अशोक की पाक शाला में प्रतिदिन सिर्फ तीन ही प्राणी मारे जाते है ,दो मोर एव एक मृग "
अब यहां ध्यान देने योग्य बात यह है इस शिलालेख में हवन यज्ञ आदि का उल्लेख होना ही इस बात का पुष्ट प्रमाण है की अशोक के समय यज्ञ हवन होते थे ,, और उस समय यज्ञ हवन की आड़ में पशु बलि दी जाती थी। स्वयं अशोक की पाक शाला में लाखो जीव सिर्फ सुप के उद्देश्य से मार दिये जाते थे।
लेकिन यहाँ प्रश्न यह उठता है कि बौधों के इकलौते भाषा वैज्ञानिक 52 भाषाओं के जानकार ताऊ राजेन्द्र प्रसाद जी का हमेसा से यही जुमला रहता है कि वैदिक सस्कृति जो है वह बौद्ध संस्कृति के बाद की है। पाली प्रचीन भाषा है। सस्कृत बाद कि ,, बौद्ध सस्कृति प्रचीन है वैदिक बाद कि है :....
तो अब यहां प्रश्न यह बनता है की हवन यज्ञ में उस वक्त पशुओं की बलि देता कौन था , क्या यह कुकृत्य बौद्ध ही करते थे ?
क्यो की राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार तो बौद्ध संस्कृति ही प्राचीन है वैदिक संस्कृति वेद उपनिषद आदि रामायण महाभारत आदि तो कनिष्क के बाद के है। 
... लेकिन यहाँ गिरनार कालसी अभिलेख में यज्ञ एव हवन का जिक्र , इस बात को बल देता है कि ताऊ रजेंद्र प्रसाद कही न कही से निहायत ही मक्कार और धूर्त टाईप के व्यक्ति है ... जो लोगो से वास्तविकता छुपा कर सिर्फ मनगढंत तथ्य प्रस्तुत कर के अंधों के बीच कानिया राजा वाली स्थिति पैदा करते रहते है।
अब अगर पाली को प्रचीन माने ....बौद्ध सस्कृति को प्रचीन माने तो क्या बौद्ध यज्ञ हवन करते थे ? क्या हवन यज्ञ आदि के मंत्रोचार पाली में होते थे ? प्रकृत में होते थे ?
और अगर बौद्ध यज्ञ हवन नही करते थे तो अशोक के शिलालेख में यज्ञ हवन का जिक्र क्यो ?
यह सबको पता है यज्ञ हवन करते समय मंत्रोचार होता है , अब राजेन्द्र प्रसाद जी यह बताये की उस समय अगर यज्ञ हवन होता था तो मंत्रोचार की भाषा क्या थी ?
अगर मंत्रोचार की भाषा पाली थी तो , पाली बोधो मूलनिवासीयो की भाषा कैसे हो गई , क्यो की बौद्ध और मूलनिवासी तो यज्ञ हवन करते नही है। यज्ञ हवन तो ब्राह्मण करते थे तो क्यो न पाली ब्राह्मणो की भाषा मान ली जाये , क्यो की पाली भाषा के शिलालेख में हवन का उल्लेख तो सिद्ध करता है की उस वक्त हवन यज्ञ आदि होते थे ?
और अगर यज्ञ हवन आदि की पररम्परा प्रारंभ में बोधो की थी तो अपने हवन में पशु बलि वह दिया करते थे , यह कुकृत्य बोधो का था फिर दोष वैदिकों एव ब्राह्मणो पर क्यो ?
इस तरह के पशुवध युक्त यज्ञ हवन का वैदिक यज्ञ हवन से क्या लेना देना ? क्यो की वेद और वैदिक संस्कृति तो आप के हिसाब से बौद्ध संस्कृति के बहुत बाद की है। और अगर कही से वैदिक सस्कृति में इस तरह भी बातें या त्रुटियां दिखती भी है तो यह आप से ही आई है क्यो की बौद्ध सस्कृति को प्रचीन संस्कृति होने का दावा आप और आप के चेले ही करते है।
तो आप या आप के अंधभक्त कृपया इस पर अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करें। कि बौद्ध संस्कृति प्राचीन है या वैदिक , पाली प्राचीन है या संस्कृत।
और अगर यज्ञ हवन बौद्ध संस्कृति नही है तो आप खुद को भी और अपने अंधभक्त चेलों को भी समझाये की वैदिक संस्कृति बौद्ध सभ्यता से पूर्व की है।
अगर आप वैदिक सस्कृति को बौद्ध सभ्यता से पूर्व मानेंगे तभी आप की इज्जत यहां बच सकती है , नही मानेगे तो आप के साथ साथ आप का पूरा बुद्धिज्म नंगा हो जाएगा।
क्यो की प्रायः सभी बौद्ध यज्ञ हवन आदि की बात को सिरे से नकारते है और उसे वैदिक संस्कृति का अंग बताते है। कोई भी बौद्ध यज्ञ नही करता बल्कि वह यज्ञ हवन का विरोध करता है अतः हवन यज्ञ यह बौद्ध सस्कृति का अंग तो नही है।
तो क्यो न यह मान ले की अशोक के समय हवन यज्ञ आदि का जिक्र यह साफ करता है की उससे पूर्व वेद और वैदिक सस्कृति दोनो विद्धमान थी।
क्यो न हम यह माने की पाली भी वैदिक भाषा थी, क्यो की यह बोधो का ही मत है कि पिछले 5 हजार सालो से तो यह अंगूठा छाप और जाहिल थे इन्हें पढ़ने लिखने का अधिकार नही था , तो इन अनपढों ने कोई भाषा कैसे सृजित कर ली , उस भाषा के शिलालेख कैसे लिखवा दिए।
निसंदेह यह अभिलेख इस मत को पुष्ट करता है कि उस वक्त वैदिक ही पाली बोलते थे , और पाली बोधो की नही वैदिको की भाषा थी। क्यो की बुद्ध के समय तो कोई बौद्ध था ही नही बुद्ध के 2 लाख सुत्तों में कही भी किसी बौद्ध नाम के जीव का जिक्र नही है।
रही हवन में पशु बलि की बात तो यह विकृति बौद्ध युग में ही अस्तित्व में आई थी,, बुद्ध से पूर्व वैदिक लोग यज्ञ में पशु बलि नही दिया करते थे , इसका प्रमाण स्वयं बुद्ध ने ही दिया है।
उदहारण देखे :-
गोतम बुद्ध ......गोतम सुतानिपात में कहते है :-
"अन्नदा बलदा नेता बण्णदा सुखदा तथा
एतमत्थवंस ञत्वानास्सु गावो हनिसुते |
न पादा न विसाणेन नास्सु हिंसन्ति केनचि
गानों एकक समाना सोरता कुम्भ दुहना |
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्येन घातयि |"
अर्थ -पूर्व समय वैदिक काल में ब्राह्मण लोग गौ को अन्न,बल ,कान्ति और सुख देने वाली मानकर उसकी कभी हिंसा नही करते थे | परन्तु आज घडो दूध देने वाली ,पैर और सींग न मारने वाली सीधी गाय को मारते है ।
यहाँ ध्यान देना होगा पशु हिंसा बुद्ध के युग में थी न की वैदिक युग में । यह स्वयं बुद्ध ने स्पष्ट किया है।
गौ मेध का अर्थ गौ के गुण से है ,
( गौ - गाय + मेध - गुण या प्रतिभा )
किन्तु मंद बुद्धि लोग गौमेध का अर्थ गौ वध से लगा कर दुष्प्रचार करते है।
इससे पता चलता है कि बुद्ध के समय में भी यह ज्ञात था कि प्राचीन काल में यज्ञो में गौ हत्या अथवा गौ मॉस या किसी भी जीव ही यज्ञ में हत्या का कोई प्रयोजन नही था ।
इस संधर्भ में एक अन्य प्रमाण हमे कूटदंतुक में मिलता है | जिसमे बुद्ध ब्राह्मण कुतदंतुक से कहते है कि उस यज्ञ में पशु बलि के लिए नही थे |
कूटदंतुक में बुद्ध ने यज्ञ पुरोहित के गुण भी बताये है :-
सुजात ,त्रिवेद (वेद ज्ञानी ) ,शीलवान और मेधावी | और यज्ञ में घी ,दूध ,दही ,अनाज ,मधु के प्रयोग को बताया है |
अत: स्पष्ट है कि बुद्ध यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ में हिंसा विरोधी थे ,सुतानिपात ५६९ में बुद्ध का निम्न कथन है :-
अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र यज्ञ श्रेष्ट है।
सुत्निपात श्लोक ५०३ तथा ४५८ में कहते है -
यदन्तु वेदगू यज्ञ काले यस्याहुति |"
अर्थात पूण्य की कामना करने वाले यज्ञ करे |
सालेय्य सुतंत १.५.१ में कहते है - जो लोग यह कहते है कि यज्ञ कुछ नही ,यह उनकी दृष्टि में मिथ्या है ...इस तरह कहने वाले लोग मर कर नर्क में जाते है |
इस तरह यहां बुद्ध स्वयं यज्ञ और वैदिक युग के यज्ञों में किसी भी तरह की हिंसा की बात को अस्वीकार कर देते है। अतः यज्ञ के नाम पर हिंसा बौद्ध युग की देंन थी वैदिक काल में ऐसा नही होता था।
अतः यह निर्विवाद सिद्ध है की वैदिक संस्कृति ही प्राचीन संस्कृति है सस्कृत ही प्राचीन श्रेष्ट जन की भाषा है। क्यो की प्रकृत और पाली भाषा तो अनपढ़ ग्वार गधे बकलोल और जाहिल लोगो की भाषा थी जो 5 हजार साल से अनपढ़ अशिक्षित थे , श्रेष्ट जन अनपढों मूर्खो और ग्वारो से संवाद के लिए प्रकृत एव पाली का प्रयोग करते थे।
उदाहरण के लिए :-
जैन आचार्य हरिभद्र सूरी अपने दशवेकालीक टिका में लिखते है कि :-
" बाल स्त्री मूढ़ मूर्खाणां मूणा चरित्रकंगक्षिणाम।
अनुग्रहार्थ तत्वज्ञ: सिद्धान्त: प्राकृत: स्मृतः।।
बाल मूढ़ मूर्ख के लिए जैन सिद्धान्त प्राकृत भाषा मे दिया गया ।
अतः यह बात तो तय है कि प्रकृत भाषा उसके बाद पाली भाषा मे जो संदेश ज्ञान दिया गया जैन या बौद्ध संस्कृति में वह मूर्खो मूढो बच्चो और स्त्रियों के लिए था ,, अतः प्राकृत या पाली विद्वानों द्वारा मूर्खो गवारो जाहिलो को समझाने के लिए प्रयुक्त होती थी।
जबकि श्रेष्ट एव विद्वान जन जो थे वह वैदिक थे ,, उस समय वैदिक संस्कृति और भाषा का प्रयोग करते थे। इस बात की पुष्टि हमने गिरनार एव कालसी अभिलेख से ही कर दी है। ,
यद्यपि हवन यज्ञ वैदिक कर्म है ,, पाली वाले जाहिल ग्वार अनपढ़ थे इसी लिए यज्ञ हवन नही करते थे। आज भी नही करते है क्यो की उन्हें इसकी जानकारी नही थी और न आज है ये चिन्दी चोर की तरह सड़क छाप इतिहासकारों भाषा वैज्ञानिकों के भरम जाल में उलझे रहते है। यह बुद्ध और अशोक पर अपना कॉपी राईट दिखाते है लेकिन उनकी बात उनके पल्ले जरा भी नही पड़ती क्यो की आखिर है तो यह मूर्ख अनपढ़ ग्वार ही न।
यह वैदिकों से कितनी भी नफरत करें . . लेकिन अपने पिता के अस्तित्व को नकारने वाली औलाद दोगली होती है वह वैदिक संस्कृति के ही लोग थे जिन्होंने प्रकृत पाली भाषा विकसित की थी जिससे की वह इन 5 हजार साल वाले अंगूठा छापो को कुछ बता और समझा सके उन्ही की भाषा मे।

वंदेमातरम

No comments:

Post a Comment