Wednesday, May 30, 2018

वेदोँ के सम्बन्ध मेँ भ्रान्तियां।

(इस लेख को पूरा पढ़ कर आप महार्षि दयानंद के प्रति अवशय नतमस्तक होगें और कह उठेंगे ऋषि आप तो महान हो सच में सबसे महान हो )

महाभारत-काल से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व वेदों के सम्बन्ध में भ्रान्तियां उत्पन्न होने लगी थी, किन्तु तत्कालीन ऋषिओँ की जागरूकता के कारण उनका विस्तार नहीँ हुआ था। तत्पश्चात्‌ भी कुछ समय तक भगवान वेदव्यास और उनकी शिष्य-परम्परा वैदिक ज्ञान को कुछ काल तक बचाने मेँ प्रयत्नशील रही। वैदिक वाड्‌.मय के कतिपय महत्वपूर्ण ग्रन्थ जो सम्प्रति उपलब्ध हैँ, उसी काल के हैँ। महाभारत के बाद वैदिक युग तेजी से समाप्ति की ओर बढ़ने लगा। सायणाचार्य से पूर्ववर्ती आचार्योँ के वेदार्थ को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यास्क आदि आप्त ऋषिओँ के वेदार्थ की परम्परान्यनाधिक रूप मेँ उन आचार्योँ तक बनी रही। मध्यकाल आते आते आर्ष परम्परा धीरे धीरे ह्रासोन्मुख होकर लुप्तप्राय सी हो गयी।

शताब्दियोँ तक वैदिक साहित्य याज्ञिक कीली के गिर्द घूमता रहा। सायण के काल तक ऐसी स्थिति हो गई कि आध्यात्मिक तत्वोँ का स्पष्ट निर्देश करने वाले मन्त्रोँ को भी पकड़-पकड़कर बलात्‌ यज्ञ प्रक्रिया मेँ घसीटा गया। शतपथ आदि वेदव्याख्यान-ग्रथोँ तक मेँ प्रक्षेप कर दिये गये। और मांसभक्षण, मदिरापान, पशुबलि, गुप्तेन्द्रियपूजन आदि आसुरी दुष्प्रवृत्तियोँ को प्रक्षेप द्वारा वेद के नाम पर पुष्टि कर दी।

सायणाचार्य विजयनगर राज्य के प्रधानमंत्री थे। शासन-व्यवस्था का प्रभाव छोटे-बड़े सभी पर पड़ता है। उस यज्ञ प्रधान युग मेँ यज्ञो मेँ पशुबलि अनिवार्य मानी जाती थी। उसी के आधार पर सायण ने वेदभाष्य किया। सायणाचार्य अपने पूर्ववर्ती आचार्यो की परम्परा का सर्वथा परित्याग करके वेदमंत्रो का केवल याज्ञिक प्रक्रियापरक अर्थ ही किया। अथर्ववेद के नवम काण्ड का चतुर्थ सूक्त स्पष्टरूप से गोवंश की उन्नति और उसके कृषि मेँ उपयोग से सम्बन्धित है। परन्तु सायण आदि ने इस सूक्त मेँ बैल को मारकर यज्ञ मेँ झोँक दिया है। इसमेँ सन्देह नहीं कि सायण ने अपने समय मेँ वैदिक साहित्य मेँ महान्‌ प्रयास किया।सायण के इस प्रयास के लिए उनको साधुवाद पर मूल धारणा के भ्रान्त होने के कारण वे स्वंय अपने किये कराये पे पानी फेर गये। अन्य पौराणिक आचार्य महीधर आदि का भाष्य तो पूरी तरह वाममार्ग मेँ रंगा है। इन भाष्योँ को पढ़ने के बाद कौन महर्षि कणाद के इस वचन को  मानेगा- "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे" इसीलिए देखा जाये तो संसार को वेद से विमुख करने मेँ सबसे बड़ा हाथ पौराणिक भाष्यकारों विशेषकर सायण का है। और अगर वेदोँ मेँ वही कुछ है जो सायण, महीधर आदि ने बताया है? तो हम भी महात्मा बुद्ध के स्वर मेँ स्वर मिलाकर कहेगेँ कि ऐसे वेदोँ से हम दूर ही भले। इन्हीं लोगों के गलत वेदभाष्य के कारण ओशो जैसे लोगों ने वेदों को कचरा तक कह डाला | इन तथाकथित वेदाचार्योँ द्वारा किये गये वेदभाष्योँ के आधार पर होने कुकृत्योँ को देखकर 'चारवाक' चिल्ला पड़े "त्रयो वेदस्य कर्तारो, धूर्तभण्डनिशाचराः।" वेदोँ के नाम पर फैले पाखण्डो के कारण ही चारवाक, जैन, बौद्ध आदि नास्तिक मतों का प्रादुर्भाव हुआ। बुद्ध महावीर ने इन पाखण्डों का खण्डन किया और बौद्धों ने वेदोँ पर भीषण प्रहार किये। वेदों से घृणा होने के कारण वैदिक धर्म विलुप्त होने लगा।

आदि शंकराचार्य और वेद- -ऐसी अवस्था मेँ कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य ने वेदोँ को पुनः प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया। कुमारिल ने भरसक प्रयास किये पर वे भी यज्ञिक कर्मकाण्ड की शाखाओँ और ब्राह्माण ग्रन्थोँ मेँ ही उलझकर रह गये। मूल संहिताओँ का उन्होँने स्पर्श तक नहीँ किया। शंकराचार्य वेद आदि शास्त्रोँ मेँ निष्णात थे। उनकी तर्कशक्ति बड़ी प्रबल थी। उन्होँने अकेले ही वेदविरोधी चारवाकोँ, जैनोँ और बौद्धोँ से लोहा लिया। शास्त्रार्थ किये। धीरे धीरे इन मतोँ का वर्चस्व मन्द पड़ गया। शंकराचार्य के काल तक वैदिक शाखाओँ, ब्राह्मण ग्रन्थोँ, आरण्यकोँ और उपनिषदोँ की भी 'वेद' संज्ञाप्रचलित हो चली थी। अध्यात्मप्रवण शंकर ने उपनिषदोँ पर अपने अद्वैत मत को स्थापित किया। इस मत का आधारभूत सिद्धान्त है"ब्रह्म सत्यंजगन्मिथ्या"।मूल संहिताओँ का स्पर्श शंकर ने भी नहीँ किया। उनके सम्पूर्ण साहित्य मेँ वेद के कहीँ दर्शन नहीँ होते। इसका कारण था कि उनके काल तक वेद केवल अपरा-विद्या के ग्रन्थ माने जाने लगे थे। परा-विद्या के ग्रन्थोँ के रूप मेँ उपनिषदोँ की मान्यता थी।

सर्वंखल्विदं ब्रह्म, छान्दोग्य का नारा लगाने वाले शंकर को "शुनि चैव श्वपाके चपण्डिताः समदर्शिनः" श्रीमद्‌भगवद्‌गीता के अनुसार मनुष्यमात्र को ही नही सब प्राणिमात्र को आत्मवत्‌ समझना चाहिए था, परन्तु वेदान्तदर्शन के 'अपशूद्राधिकरण' मेँ मात्र वेद को सुनने के तथाकथित अपराधी शूद्र के कानोँ मेँ गरम-गरम सीसा उँड़लने का निर्देश करके 'प्रश्नोत्तरी' मेँ नारी को नरक का द्वार बतलाकर अपने 'मनस्यन्यद्‌ वचस्यन्यत्‌ कर्मण्यन्यत्‌' का उदाहरण उपस्थित कर 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' के याथार्थ्य का भाण्डा फोड़ दिया। डा॰राधाकृष्णन्‌ ने शंकर भाष्य का अंग्रेजी मेँ अनुवाद करते हुए शंकराचार्य के इन वचनों से असहमति जताते हुए लिखा है-

"But the restrictrios imposed with regard to vedic study cannot be defended. If we take our stand on the potential divinity of all human beings, sex or occupation, the methods for gaining release should be open to all"

परन्तु शंकर ने कलम की एक नोक से मानवसमाज के तीन चौथाई भाग (स्त्री-रूपआधा+शूद्र-रूप अन्य अर्द्ध) को वेदाध्ययन से वञ्चित कर दिया और रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बर्काचार्य आदि आचार्योँ ने आँख मूँदकर समर्थन कर दिया। यह कैसा वेद्वोद्धार था और कैसा अद्वैतवाद? वस्तुतः यह सब इन आचार्योँ की वेदार्थ सम्बन्धी भ्रान्तियोँ से उत्पन्न अवैदिक विचारधारा का परिणाम था। इस प्रकार वेदमत के उद्धार के लिए कृतसंकल्प शंकर उपनिषदोँ से आगे नहीँ बढ़े।ऐसी अवस्था मेँ मनु आदि द्वारा वेद के लिए कहे गये "सर्वज्ञानमयो हि सः, इत्यादि वचन निरर्थक हो गये। वस्तुतः कुमारिल और शंकर अपने वेदोद्धार कार्य के निमित्त 'निरूक्त के सत्यमार्गदर्शक, ऋषिभूत तर्क' का आश्रय नहीँ लिया।इसी कारण वे वेदोँ को मनुष्य के लिए अपेक्षित सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार के रूप मेँ प्रस्तुत न कर सके। पाँच सहस्त्र वर्षोँ के पश्चात्‌ प्रज्ञाचक्षुगुरू विरजानन्द की प्रेरणा से प्राप्त इस दिव्यास्त्र का प्रयोग कर वेदोद्धार का श्रेय दयानन्द को मिला। वेदोद्धार का जो महत्तम कार्य स्वामीजी ने किया वह पूर्वकाल के कुमारिल और शंकर के काम से कहीँ अधिक क्लिष्ट और दुरूह था। इन दोनों आचार्योँ ने जिन मतों का खण्डन किया वे मूलतः भारतीय थे। स्वामी दयानन्द के काल मेँ पूर्वोक्त अवैदिक मतों के अतिरिक्त कुकुरमुत्तोँ की भाँति अनेक मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये थे | स्वंय शंकाराचार्य का अद्वैत भी उन्हीँ मेँ से था। अवतारवाद, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा, जन्मगत ऊँच-नीच आदि अनेक अवैदिक मान्यताओँ के कारण समाज तेजी से पतन की ओर बढ़ रहा था। श्रीमद्‌भगवतगीता ने कहा था "ईश्वरःसर्वभूतानां ह्रद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति।।" परन्तु भक्तजनोँ ने उन्हेँ अपने हृदय-मन्दिरोँ से निकालकर गली-कूचो मेँ बने ईँट-पत्थरोँ के मन्दिरोँ मेँ कैद कर दिया था। 'वैदिकी हिँसा हिँसा न भवति' की मनमानी व्याख्या करके ईश्वर के नाम पर निरीह पशुओँ और कभी-कभी मानव-शिशुओँ की बलि देकर तथाकथित भक्तजन नाचते कूदते थे। कर्मगत वर्ण के स्थान पर जन्मगत जाति का बोलबाला था। दुधमुँहे बच्चोँ के विवाह कर दिये जाते थे। परिणामतः लाखोँ बाल-विधवाएं अभिशप्त जीवन व्यतीत करने को विवश थी। भय दिखाकर पुरोहित उसे सती के नाम पर जीवित ही आग मेँ झोँक देता था। तीर्थस्थान व्यभिचार के अड्डे बने हुए थे। 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्‌' का मिथ्या प्रचार करके देश की आधी से अधिक आबादी को शिक्षा से वंचित कर दिया गया था। इस प्रकार भारत अनपढ़, गँवारोँ का देश बनकर रह गया था और यह सब वेदोँ के नाम पर हो रहा था।

पश्चिमी विद्वान और वेद- उक्त भारतीय मत-मतान्तरोँ और अवैदिक मान्यताओँ के पोषक पौराणिक वेदभाष्योँ के अतिरिक्त मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वान जान-बूझ कर वेदोँ को विकृत रूप मेँ प्रस्तुत करने के लिए कटिबद्ध थे। जैसे सायण आदि का दृष्टिकोण यज्ञपरक था, वैसे ही पाश्चात्य विद्वानोँ का लक्ष्य वेदभाष्य करते समय ईसाई मतावलम्बी विदेशी सरकार के हितोँ को ध्यान मेँ रखते हुए उन पर विकासवादी दृष्टिकोण से विचार करना था। मैक्समूलर के भाष्य पर सायण और डार्विन दोनो छाये हैँ और उसके भीतर मैकाले की आत्मा विद्यमान है।मैक्समूलर ने बहुदेवतावाद (पालीथीज्म) और एकेश्ववाद (मोनोथीज्म) के मुकाबले 'हीनोथीज्म' नाम से एक नये मत की कल्पना सिर्फ इसलिए कि की वह, विकासवादके सिद्धान्त के विपरीत यह मानने के लिए तैयार नहीँ था कि एकेश्वरवाद-जैसा उत्कृष्ट विचार मानव-संस्कृति के प्रारम्भिक काल मेँ किसी मनुष्य के विचार मेँ आ सकता था। मैक्समूलर के प्रमुख शिष्य मैकडालन ने अपनी पुस्तक 'ए वैदिक ग्रामर फार स्टूडेण्ट्‌स' मेँ लिख दिया कि ऋग्वेद के १० मण्डलोँ मेँ से ८ मण्डल पहले लिखे गये, तत्पश्चात्‌ नवाँ और अन्त मेँ दसवाँ। अर्थात्‌ पहले आठ और अगले दो (जिनमेँ एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया है) मण्डलोँ के लिखे जाने का समय भिन्न है। जब उन्हेँ यह बतलाया जाता है कि 'एकं सद्‌ विप्राबहुधा वदन्ति' तो पहले मण्डल मेँ आया है तो वे कहते हैँ कि वहाँ यह प्रक्षिप्त है, परन्तु यह वाक्य तो वेद अभिन्न अंग है जो भिन्र-भिन शब्दोँ मेँ यत्र-तत्र-सर्वत्र ओत-प्रोत है। फिर इसे प्रक्षिप्त या बाद मेँ डाला हुआ कैसे कहा जा सकता है? यह शीर्षासन केवल इसीलिए किया जाता है क्योँकि उनकी विकासवादी विचारधारा मेँ यह फिट नहीँ बैठता।

इस प्रकार पाश्चात्य विद्वानोँ ने वेदोँ पर पर्याप्त कार्य किया तो भी वे उनमेँ निहित ज्ञान की थाह न पा सके। सच्चाई तक पहुँचने मेँ विकासवाद और पूर्वाग्रह एवं स्वार्थ आड़े आ रहा था। वे वेदोँ का घृणित भाष्य करने के लिए कृतसंकल्प थे ताकि भारत मेँ ईसाइयत की जड़ें मजबूत की जा सकी। स्वंय मैक्समूलर ने अपनी पत्नी के नाम लिखे पत्र मेँ इस तथ्य को स्वीकार किया-
"This edition of mine and translation of the Veda will hereafter, tell to a great extent on the fate of India. It is the root of their religion and to show them what the root is I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung during the last three thounsand years. (Life and letters of Max muller, Vol. I, Ch XV, P.34)
इसका परिणाम क्या हुआ, यह भारत सचिव के नाम 16 दिसम्बर 1868 को लिखे मैक्समूलर के निम्न पत्र से स्पष्ट है-
"The ancient religion of India is doomed. Now if Christinity does not step in whose fault will it be?" (Ibid, Ch XVI, P. 378)

ऐसे समय मेँ दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होनेँ बड़ी सूक्ष्मता से देश की समस्याओँ पर विचार किया। विचार के पश्चात्‌ वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस देश, जाति और समाज की दुर्दशा का मूल कारण वेद विद्या के प्रचार के अभाव में देश मेँ व्याप्त अविद्यान्धकार है। इसीलिए जब तक वेदोँ का उद्धार करके उनको अपने वास्तविक रूप मेँ प्रस्तुत नहीँ किया जायेगा तब तक अविद्यान्कार दुर नहीँ होगा। वेदोँ को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए दयानन्द को भारतीय अवैदिक मत-मतान्तरोँ के अनुयायियोँ और विदेशी मतोँ (इस्लाम और ईसाइयत)पाश्चात्य और तदनुयायी भारतीय विद्वानोँ द्वारा फैलाई गई भ्रान्तियोँ से एक साथ लड़ना पड़ा। स्वामी दयानन्द भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत थे।

फ्राँसीसी लेखक रोम्याँ रोलाँ ने ऋषि दयानंद के बारे में लिखा है-
"यह सिँह-सदृश प्रकृति वाला मनुष्य उनमेँ से एक था जिसे युरोप भारत के सम्बन्ध मेँ अपनी धारणा बनाने के समय भुला देता है, किन्तु एक-न-एक विवश होकर उसे अपनी भूल स्वीकारनी होगी, क्योँकि दयानन्द मेँ कर्मयोगी, चिन्तक तथा नेतृत्व के लिए अपेक्षित प्रतिभा का दुर्लभ मिश्रण था। शारीरिक बल मेँ वह हरक्यूलीस के समान था जो सत्य के विपरीत हर प्रकार के विचार के विरूद्ध गर्जता था। पाँच वर्ष उसने सारा उत्तर भारत बदल डाला। संस्कृत ज्ञान मेँ उससे बढ़कर कोई न था। पाश्चात्यविचारोँ से उसने कभी समझौता नहीँ किया।"

जहाँ 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' कहने वाले वेदमंत्र सुननेवाले शूद्र के शरीर के टुकड़े टुकड़े करने का आदेश देते हैँ  वहीँ दयानन्द 'यथेमां वाचं कल्याणीमा"इत्यादि मंत्रो के आधार पर मनुष्य मात्र को वेद का अधिकार देते हैँ।रोम्यां रोलाँ लिखते हैँ कि- "भारत के इतिहास मेँ वह दिन सचमुच युगान्तरकारी था जब एक
ब्राह्मण ने मनुष्यमात्र को वेदाध्ययन का अधिकारी किया जिस पर पहले कट्टरपन्थी ब्राह्मणोँ ने रोक लगा रक्खी थी।" इस प्रकार जहाँ तक वेद का सम्बन्ध है, स्वामी दयानन्द का स्थान हर दृष्टि से शंकराचार्य से कहीँ ऊँचा है। मैक्समूलर जैसे पाश्चात्य विद्वान ने कभी स्वामी जी के भाष्य को भ्रामक कहकर खिल्ली उड़ाई थी पर जब उनकी 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' पढी तब लिखा-

"We may divide the whole sanskrit literature begining with the Rigveda and ending with Dayanand's 'Rigvedadibhashyabhumika' (Introduction to his commentry on the Rigveda)

इसीलिए स्वामी जी के वेदभाष्य को लक्ष्य करके श्री योगी अरविन्द ने लिखा था- "वैदिक व्याख्या के सम्बन्ध मेँ मेरा यह विश्वास है कि वेदोँ की अन्तिम और पूर्ण व्याख्या चाहे कुछ भी हो, यथार्थ निर्देशोँ के प्रथम आविर्भावक के रूप मेँ दयानन्द का नाम सदा सम्मान के साथ लिया जायेगा। पुराने युग की मिथ्या ज्ञान की अव्यवस्था और अस्पष्टता के बीच यह उनकी अन्तर्दृष्टि थी जिसने सच्चाई को खोज निकाला और उसे वास्तविकता के साथ जोड़ दिया।" (वैदिक मैगजीन, लाहौर)

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