Wednesday, January 31, 2024

अद्वैत

पूरे भारत को अपने पैरों से रौंदकर वह युवक कुछ दिनों के लिए काशी में रुका हुआ था। 

विश्वेश्वर महादेव से लगी मणिकर्णिका घाट के निकट ही फूस की कुछ कुटियों में वह अपने शिष्यों सहित रहता था। 

अद्वैत के उसके सिद्धांत ने बौद्धिकों के मन मस्तिष्क में हलचल मचा दी थी, एवं शास्त्रार्थ में उससे पराजित होने वाले वयोवृद्ध प्रकांड पण्डित भी उस युवक को अपना गुरु नाम अपने शिष्यों सहित उसके चरणों में नतमस्तक रहते थे। 

प्रातः से अनवरत बोलते और शिष्यों एवं जिज्ञासुओं के उत्तर देते-देते वह किंचित थक सा गया था। 

आकाश से देवता उसे देख रहे हो या न देख रहे हों, पर एक देवता अपने प्रचंड रूप से पृथ्वी पर अपनी कोपदृष्टि बरसा रहा था। 

छोटे-मोटे तालाब तो सूख ही चुके थे, नदी का पाट भी कम हो चला था। 

प्रत्येक जीव के ठीक सिर के ऊपर आकाश का वह देवता अपनी दृष्टि से सबको घूर रहा था, जिससे बचने के लिए मछलियां नदी में गहरे चली गई थी, पक्षी अपने घोसलों में दुबक गए थे। 

युवक ने सोचा कि इस अथाव गर्मी से छुटकारा पाने के लिए गंगा में डुबकी लगा ली जाए। 

वह उठा तो उसके कुछ शिष्य भी साथ चलने लगे। 

घाट की सीढ़ियों से उतरते हुए उन्हें बीच रास्ते में चार भयानक कुत्तों के साथ एक चाण्डाल खड़ा दिखा, जो पता नहीं सीढ़ियों से ऊपर जा रहा था या नीचे। शिष्यों ने दुत्कारा, "दुर-दुर, हट-हट।"

कुत्तों ने दुरदुराने वालों को देखा और अपना कर्तव्य निर्धारण करने हेतु अपने स्वामी चाण्डाल को देखा। 

उनका स्वामी वैसे ही सीढ़ियों के किनारे बने मन्दिरों को निहारता ही रहा। कुत्तों ने संकेत समझा और वहीं कूँ-कूँ करते हुए चाण्डाल के चरणों में बैठ गए। 
 
ज्येष्ठ माह की धूप, प्रातः से तर्क-वितर्क से थके मस्तिष्क वाले युवक ने किंचित व्यग्रता से कहा, "अरे चाण्डाल, मार्ग से हट। मुझे नीचे नदी तक जाना है।"

चाण्डाल ने युवक को क्षण भर देखा, और बोला, "तो जा भाई, मैंने कब तेरा मार्ग रोका है? मैं कोई साँड़ तो हूँ नहीं कि मेरी देह के विस्तार ने तेरा मार्ग अवरुद्ध किया हो। पतला-दुबला तो हूँ, पार्श्व से निकल जा। या मेरे इन कुत्तों से डरता है? सुना तो है कि तू सारे नदी-नाले, जंगल-पहाड़ फांदकर आया है। क्या वनों के वन्यपशुओं से अधिक भयावह तुझे ये कुत्ते लगते हैं, जो निकट आने में तुझे भय लगता है? आ जा, ये कुछ नहीं करेंगे। मैं मना कर दूंगा इन्हें।"

यह सुन शिष्यों के मुख से दुर्वचन निकलने लगे, और युवक की भृकुटि चढ़ गई। बोला, "रे चांडाल, अपनी काया से क्यों मुझे अपवित्र करने पर तुला है। चार पग चल कर दाएँ-बाएँ हो जा, मैं निकल जाऊं, फिर पुनः आकर यहीं समाधि लगा लेना।"

"ओह, अच्छा-अच्छा, तुझे कुत्तों से दिक्कत नहीं है। तुझे मेरी इस मानस देह से दिक्कत है। मुझे तो लगा था कि अद्वैत की बात करने वाला तू कोई विद्वान होगा। कितने ही पंडे-पुजारी इस काशी में गेरुआ वस्त्र पहने, माथे पर तिलक और हाथ में कमण्डल लिए घूमते हैं, चतुर वाणी बोल प्रजा को मूर्ख बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। तू भी उन जैसा ही कोई अभिनेता ही है क्या?"

युवक को समझ नहीं आया कि चाण्डाल क्या कह रहा है। वह, जिसने भारत भर के विद्वानों को अपनी प्रज्ञा से पराजित किया, क्या वह कोई ठग है जो जनता को बहका रहा है! 

युवक को खिन्न और अपनी ओर घूरता देखकर चाण्डाल पुनः बोला, "घूरता क्या है रे ठग? क्या मैंने कुछ गलत कहा? तू ठग नहीं है तो क्यों बात अद्वैत की करता है परन्तु व्यवहार में चाण्डाल और ब्राह्मण में भेद करता है? क्या नदी में प्रतिबिंबित सूर्य और पोखरे में प्रतिबिंबित सूर्य में कोई अंतर है? क्या ये तेरी गंगा किसी चतुर्वेदी और चंडाल में, पंडा और पासी में, नीतिकार और चर्मकार में भेद करेगी? क्या तेरे शरीर में जो आत्मा, परमात्मा, प्रत्यगात्मा है, वह मेरे शरीर से अलग है? जो अनन्त है, अव्यक्त है, अचिंतनीय है, अपने उस स्वरूप को, उस आत्मा को भूल कर अपनी देह को महत्व और दूसरे की देह को अपवित्र मानने वाला तू कोई अद्वैतवादी कैसे हो सकता है? तू या तो मूर्ख है, या कपटी है! तेरी वाणी पर कुछ और, मन में कुछ और, तू संसार को अद्वैत बताएगा। तू तो स्वयं ही द्वैत का सर्वोच्च उदाहरण है। ले, छोड़ दिया तेरा रास्ता। जा, जाकर लगा ले डुबकी गंगा में। बाहर निकल कर फिर किसी दूसरे नगर जाकर अपनी ठगी दिखाना। दिग्विजय पर निकला है न तू। जा, कर दिग्विजय। पर है तू कायर ही। तुझसे तो आजतक अपना मिथ्या अहंकार, अपना मन तक न जीता गया।"

जैसे किसी ने कशाघात किया हो, या किसी घोड़े ने वक्ष पर पदप्रहार किया हो, युवक कुछ क्षण तो सन्न रह गया। 

चाण्डाल की वाणी, उसके तर्क, उसका तिरस्कार मस्तिष्क में घूमते रहे। नेत्रों से गंगा बह चली और एकाएक ही वह चाण्डाल की ओर दौड़ पड़ा। 

आगे का दृश्य देख शिष्यों के प्राण उनके मुख में आ गए। 

ब्राह्मणों में पूजित वह युवक एक चाण्डाल के पैरों में लिपटे, उसके चरणों को अपने अश्रुओं से धो रहा था। चांडाल मुस्कुरा रहा था और उसका हाथ युवक के सिर और पीठ को सहला रहे थे।

जब युवक थोड़ा स्वस्थ्य हुआ तो बोला, "मनुष्यों में श्रेष्ठ श्रीमान, आपने जो कहा, सत्य कहा। जो जीव विष्णु में है, महादेव में है, वह जीव ब्राह्मण में है, चाण्डाल में है, मनुष्य में है और पशुओं में भी है। श्रीमान, मैं आपका ऋणी हूँ। कृपया मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करें। आप चाण्डाल हों या ब्राह्मण, देव हों या असुर, मेरे गुरु हैं।"

चाण्डाल मुस्कुराता रहा और युवक देखता रहा। युवक के देखते ही देखते चाण्डाल का रूप परिवर्तित हो गया। 

उसने देखा कि कदाचित नीलवर्णी, अथवा पिंगलवर्णी या कदाचित श्वेतवर्णी परमात्मा जिसके हाथों में वेद हैं, जिसकी जटाओं पर चंद्रमा है,  जिसने हाथी का चमड़ा पहना है या कपास के कपड़े पहने हैं, जिसके गले में सर्प है या कि गजमुक्ता, बैठा-बैठा नेत्रों से प्रेम बरसा रहा है। 

युवक देखता ही रहा और बोला, "शंभो, मेरी देह तेरी दास है। मेरी आत्मा तेरा अंश है। समस्त ब्रह्मांड में आद्य आत्मा तेरी ही है, और मैं तेरा ही भाग हूँ। तू शंकर है, मैं भी शंकर हूँ। तू शिव है, मैं भी शिव हूँ। शिवोहम शिवोहम।

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