दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद द्वारा पांचवां रोमा सम्मेलन आयोजित किया गया। सम्मेलन में विदेशों में दर-दर भटकते भारतीय संस्कृति के ध्वजवाहक रोमाओं की चिंता सामने आई। दावा किया जाता है कि दुनिया भर में फैले रोमा समुदाय के लोग भारत के वंशज हैं। भारत में आज भी कुछ ऐसी जातियां हैं जो अपना घर बनाकर नहीं रहती। आज यहां कल वहां ; ऐसे ही उनकी जिन्दगी चलती रहती है। ऐसे में ही वे अपने बच्चों की शादी आदि सभी संस्कार करते हैं।
यही जातियां पश्चिम के कई देशों में फैले रोमा समुदाय हैं। जिन्होंने भारतीय वैदिक संस्कृति के प्रचार – प्रसार के लिए कभी विदेश गए थे और वहीं के रह कर हो गए थे। वहां भी उनकी जिन्दगी ऐसे ही खाना-बदोश की जिन्दगी रही। आज पूरी दुनिया में करीब दो करोड़ लोग रोमा समुदाय के हैं। ज्यादातर रोमा रूस, सोलवाकिया, हंगरी, सर्बिया, स्पेन और फ़्रांस में बसे हैं। अमेरिका में दस लाख और ब्राजील में अस्सी हजार रोमा हैं। रोमानिया, बुल्गारिया व तुर्की में भी इनकी काफी संख्या है। तुर्की में रोमाओं की जनसंख्या भी साढ़े सत्ताईस लाख के पार है। समस्या यहीं है कि तुर्की से पिछले बरस से अब तक लाखों लोगों को पलायन कर शरणार्थी बनने को मजबूर होना पड़ा है।
पाल्बो पिकासो, अंतोनियो सोलारियो, चार्ली चैपलिन, इली नताशे और एल्विस प्रेस्ले जैसे कई रोमा हुए हैं जिन्होंने कला, संगीत, विज्ञान, खेलकूद और राजनीति में ऊंचाई पर पहुचें हैं। वहीं मानव इतिहास की सबसे अधिक नाटकीय दशा भी शायद रोमा समुदाय के साथ जुड़ी हुई है। यही वह समुदाय है जिसे दर-दर भटकने के साथ-साथ सबसे ज्यादा अत्याचार सहन करते हुए अपनी संस्कृति और अपनी पहचान बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
इतिहास गवाह है कि दूसरे विश्वयुद्ध में यहूदियों के बाद नाजियों की क्रूरता का सबसे बड़ा शिकार रोमा समुदाय ही था। अभी पता नहीं कि तुर्की से उजड़े लोगों में कितने रोमा हैं, अभी भी रोमाओं को लगातार जाति भेदभाव और हिंसा पश्चिम में झेलनी पड़ रही है। कई बार तो रोमाओं ने ऐसे भेदभाव के खिलाफ आवाजें भी उठाई हैं। तीन साल पहले २०१३ में फ़्रांस और स्वीडन में जाति भेदभाव के खिलाफ उनके ऐसे ही आंदोलन सामने आए थे। उस वक्त ये आंदोलन फ़्रांस में पंद्रह वर्षीय एक किशोरी के स्कूल से निष्कासन और परिवार समेत देश निकाले के खिलाफ उठे थे। लियानार्डा दिबरानी नाम की इस किशोरी को उसके स्कूल से महज इसलिए निकाल दिया गया था क्योंकि फ़्रांसीसी सरकार के मुताबिक उसका पिता फ़्रांस में नौकरी नहीं करता था। उसका परिवार फ़्रांसीसी समाज से तालमेल नहीं बिठा पाया था। पहले भी फ़्रांस से ऐसी खबरें आती रही हैं कि वहां रोमाओं की बस्तियां उजाड़ी जा रही हैं। सरकार उन्हें राष्ट्रीयता नहीं दे रही है और उन्हें दूसरे देशों में जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। रोमाओं से ऐसे भेदभाव की कुछ और घटनाएं अत्यंत सहिष्णु स्वीडिश समाज से भी मिली हैं। स्वीडिश पत्रकार निकैलस ओरेनियस के अनुसार यहां उन्हें जान – बूझ कर प्रताड़ित किया जाता है।
भारतवंशी रोमा समुदाय आज संभवत: शरणार्थी न कहे जाएं क्योंकि ये यूरोप में लंबे समय से बसे हैं, पर इनके साथ जाति आधार पर जैसा भेदभाव किया जाता है, उससे उनकी हालत शरणार्थियों से भी बदतर हो जाती है। पूरे यूरोप से रोमाओं के साथ ऐसी प्रताड़ना और भेदभाव के समाचार आते रहते हैं। तीस देशों में फैले दो करोड़ रोमाओं के वंशज वे बीस हजार भारतीय हैं जिन्हें दो हजार साल पहले सिकंदर अपने साथ यूरोप ले गया था। वहां से ये रोमा अन्य देशों में फैल गए।
इतिहास गवाह है कि जिप्सी कहे जाने वाले रोमा समुदाय के लोग करीब पांच सौ साल पहले मुख्यतय फिनलैंड और रूस के रास्ते ही फ़्रांस और स्वीडन में आए थे। रोमाओं की घुमंतू जातियों ने जर्मनी के नाजियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने और वहां से निष्कासित किए जाने के बाद बड़ी संख्या में यूरोपीय मुल्कों में शरण ली थी। फ़्रांस-स्वीडन के अलावा रोमा समुदाय के लाखों लोग बुल्गारिया, मैसेडोनिया, रोमानिया, सर्बिया, क्रोएशिया, चेक गणराज्य, सोलवाकिया, हंगरी और पोलैंड जैसे यूरोपीय देशों में और रूस-यूक्रेन समेत टर्की आदि मुल्कों में बसे हुए हैं। हंगरी में इनकी जनसंख्या दस फीसद तक है, जहां करीब दस लाख रोमा रहते हैं। हंगरी में भी उनके साथ भेदभाव हैं। दुनिया में रोमा समुदाय के लोगों के साथ बरते जाने वाले भेदभाव और उन्हें हिंसक व अपराधी बताने की प्रवृत्ति के पीछे मूल कारण रोमाओं की गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी है।
रोमा समुदाय से भेदभाव करते हुए उन पर अत्याचार करने के अलावा उन्हें अक्सर मूल निवास स्थान यानी भारत लौट जाने को कहा जाता है। इस तरह बंजारा प्रवृत्ति के रोमाओं का पुनर्वास एक अंतरराष्ट्रीय समस्या बन चुका है। लेकिन रोमाओं की समस्या की पड़ताल करने से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर रोमा हैं कौन। बताया जाता है कि ये वैसी ही घुमंतू जनजातियां हैं जैसी भारत में बंजारा समुदाय के तहत आती हैं। अपने देश में वन गुर्जरों, गड़रिया, लुहारों और गद्दी समुदाय के लोगों को बंजारा अथवा रोमा समुदाय का ही माना जाता है। इन्हीं जनजातियों को दुनिया में रोमा अथवा जिप्सी कहा जाता रहा है। पूर्वी और मध्य यूरोप तथा पश्चिम एशिया के देशों में इन घुमंतू जातियों को रोमा या जिप्सी के अलावा नोमाड भी कहा जाता है।
इन जनजातियों के उद््भव के बारे में इनका संबंध रोमानिया देश है जिस कारण इन्हें रोमा कहा जाता है। इन्हें मिले जिप्सी संबोधन के कारण इन्हें इजिप्ट यानी मिस्र से भी जोड़ा जाता है। पर वे ऐसा नहीं मानते हैं। जहां तक इनके उद््भव से संबंधित प्रमाणों की बात है तो भाषाई और आनुवंशिक प्रमाण रोमाओं का संबंध भारतीय उपमहाद्वीप से जोड़ते हैं। इतिहास के जानकार बताते हैं कि हिंदुओं की कुछ जातियों के इन लोगों को मुस्लिम आक्रमणकारियों से निपटने के लिए लड़ाकुओं के रूप में देश के पश्चिमी इलाकों में भेजा गया था। वहां से मुगल शासक इन्हें अपने दासों के रूप में अपने मूल देशों में ले गए थे। वहां के हजार वर्षों के कालखंड में ये रोमा कई यूरोपीय देशों में पहुंच गए। दुनिया में भारतवंशी रोमाओं के भविष्य का सवाल दो कारणों से खड़ा हुआ है। पहली इस समुदाय के गिनती के जिन लोगों ने विकसित यूरोपीय देशों में अपनी मेहनत के बल पर संपन्नता हासिल कर ली है, उनकी समृद्धि स्थानीय लोगों की आंखों में चुभ रही है। दूसरे छोर पर वे रोमा हैं जो आज भी छोटे-मोटे काम करके अपना पेट पालते हैं और रोजगार की मजबूरी के चलते ही उन्हें यहां से वहां बंजारों की तरह भटकना पड़ता है। चूंकि इनका कोई स्थानीय ठिकाना नहीं होता और स्थायी पहचान नहीं बन पाती है, इसलिए इन्हें अपराधी बताना और इन पर चोरी-चकारी के आरोप मढ़ना आसान होता है।
जाति भेदभाव के कारण चौदहवीं सदी में रोमाओं के यूरोप पहुंचने से लेकर बीसवीं सदी तक वहां की सरकारें ऐसे जिप्सी-विरोधी कानून बनाती आई हैं जिनकी आड़ में रोमाओं को यहां से वहां खदेड़ा जाता रहा है। ऐसी भेदभावपूर्ण नीतियां आज भी जारी हैं, इसलिए रोमाओं को एक देश से दूसरे देश में भागना पड़ता और वहां शरण मांगनी पड़ती है। विकसित यूरोपीय समाज के बीच से बार-बार यह मांग उठती रही है कि रोमाओं को भारत वापस भेज दिया जाए क्योंकि उनके पूर्वज तो वहीं से आए थे।
रोमाओं को वापस भारत बुलाना तो संभव नहीं है क्योंकि न तो यूरोपीय संस्कृति में रच-बस चुका रोमा समुदाय यहां आकर खुद को यहां के समाज में नहीं घुला पाएगा और अचानक करोड़ों लोगों को बसाना भी आसान कार्य नहीं है। परन्तु अंतरराष्ट्रीय दबाव डाल कर उनकी हालत तो सुधारी ही जा सकती है।
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