Friday, November 27, 2015

भाई राजीव दीक्षित जी....

भाई राजीव दीक्षित जी ने एक बार भारत के लोगों के स्वास्थ्य के विषय में जानना चाहा| इस के लिए उन्होंने भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय को एक पत्र भेजा| जवाब में उन्हें 600-700 पन्नों की सेंसस रिपोर्ट भेजी गई जिसमें सन 2007 तक के आंकड़े थे| आज सन 2013 में यदि हम प्रतिवर्ष जनसंख्या वृद्धि की दर और मौजूदा सीमित संसाधनों को भी जोड़ लें तो ये आंकड़े बढ़े ही हैं, घटे नहीं|

·         इन आंकड़ों के अनुसार सन 2007 तक भारत में 112 करोड़ लोग थे|
·         केवल 25-30% लोग ही स्वस्थ थे|
·         5 करोड़ से ज्यादा लोगों को diabetes थी|
·         12-13 करोड़ लोगों को फेंफड़ों की बीमारी थी|
·         16-20 करोड़ लोगों को हड्डी और जोड़ों के रोग थे|
·         9-10 करोड़ लोगों को पेट की बीमारियाँ थीं|
·         20-22 करोड़ लोगों को आँखों की बीमारी थी|

पिछले 6 सालों को यदि हम देखें तो जनसंख्या दर कम नहीं हुई है, डॉक्टरों की संख्या जिस अनुपात में बढ़ी है वो जनसंख्या के लिए बहुत कम है जिसमें से कई डॉक्टर भारत में नहीं टिकते तथा प्रत्येक आम व्यक्ति बड़ी बीमारियों के लिए महंगा इलाज नहीं करा सकता क्योंकि महंगाई भी बुरी तरह बढ़ी है| इसीलिए आप यह मान कर चलें कि उपरोक्त आंकड़ों में वृद्धि ही हुई है, कमी नहीं| भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से अब तक 16000 करोड़ रुपये से अधिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर चुकी है| यह खर्च तो केवल केन्द्रीय सरकार का है, इसके अलावा राज्य सरकारें स्वास्थ्य सेवाओं पर अलग खर्च करती हैं| इसका यदि औसत मान लिया जाए तो लगभग सवा लाख करोड़ कुल खर्चा हो चुका है स्वास्थ्य सेवाओं पर अब तक| सन 2007 तक भारत में लगभग 23 लाख डॉक्टर उपलब्ध थे जो औसतन 50 मरीजों का ही इलाज कर पाते हैं| इस हिसाब से 10% जनसंख्या वृद्धि दर और प्रतिवर्ष डॉक्टरों की वृद्धि दर के अनुसार भारत के सभी मरीजों को पूर्ण स्वास्थ्य सेवाएँ मिलने में 350 वर्षों का समय लग जाएगा जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार द्वारा मान्य संधि, 2014 तक रोगमुक्त विश्व, की अवहेलना करता है! भारत में जितने डॉक्टर हैं, उन्हें तैयार करने में भारत सरकार अब तक 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है और इससे अधिक दर से डॉक्टर तैयार करने के लिए भारत सरकार के पास बजट नहीं है|

आधुनिक भारत में जितने भी बड़े वैद्य हुए हैं, यहाँ तक कि वे आधुनिक डॉक्टर भी जो भारतीय इतिहास से परिचित हैं, यह मानते हैं कि आज से 200 साल पहले के भारत में बहुत ही कम लोग बीमार हुआ करते थे| जब इसके आँकड़े निकाले गए तो पता चला कि यदि आज के भारत में 100% लोग बीमार हैं तो आज से 200 वर्ष पहले के भारत में केवल 8% लोग ही बीमार थे! उस जमाने में अंग्रेज़ों की सरकार थी तो बीमारियों से जूझने के लिए उन्होंने अपनी एलोपैथी पद्धति का उपयोग किया| बीते 200 वर्षों में एलोपैथी पर अनुसन्धान बढ़ा है, अस्पताल बढ़े हैं, डॉक्टर बढ़े हैं, दवाइयाँ बढ़ी हैं, शहर और सुख सुविधाएँ बढ़ी हैं किन्तु रोगों की दर कम होने के बजाय कहीं ज्यादा बढ़ गई है| ये आंकड़े एलोपैथिक पद्धति की असफलता के प्रमाण हैं| एलोपैथिक पद्धति के चिकित्सकों की यदि मानें तो इस पद्धति ने पिछले 200 वर्षों में अगर कोई काम किया है तो इसने दर्द से लड़ने की शक्ति को बढ़ाया है, बस! भारत में जितने भी बड़े बड़े चिकित्सक, वैद्य, आचार्य या महर्षि रहे हैं; उन सभी का यह मानना था कि हमारे जीवन में 85% रोग वे हैं जिनकी चिकित्सा हम स्वयं कर सकते हैं| बाकी बचे 15% गंभीर रोगों के लिए परामर्श आवश्यक है| इनमें से भी अधिकांश रोग वे हैं जिन्हें आप 85% के दायरे में ही ठीक कर सकते हैं यदि आप रोग आने से पहले ही सचेत हो जाएँ तो! एक रोगी स्वयं अपना सबसे बड़ा चिकित्सक हो सकता है यदि वह दो काम कर ले – अपने शरीर (anatomy) को थोड़ा समझ ले और अपने भोजन को पहचान ले| महर्षि वाग्भट्ट जी के अनुसार अपने भोजन को पहचानना सबसे अधिक जरूरी है| भोजन को पहचानने का अर्थ है कि भोजन की प्रकृति को जानना जैसे कौन सा भोजन वात, पित्त और कफ़ का कारक है| जो व्यक्ति इसे पहचान कर अपनी दिनचर्या को सुनियोजित करने में सफल हो जाता है, उसे कोई रोग नहीं हो सकता|

आइए जानें महर्षि वाग्भट्ट जी को| महर्षि चरक के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में आचार्य वाग्भट्ट जी की गिनती होती है| कहते हैं के ये 135 वर्षों तक जीए और यौगिक क्रिया द्वारा इन्होंने अपने शरीर का त्याग किया| इन्होंने अपने गुरु महर्षि चरक से भी डेढ़ गुणा अधिक काम किया तथा अपने गुरु के सिद्धांतों पर अनुसन्धान कर उसे आम व्यक्ति के लिए सरलीकृत किया| इन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन के अध्ययन और अनुसन्धान को दो ग्रंथों में पिरोया है – अष्टांग हृदयम तथा अष्टांग संग्रहम| इन दो ग्रंथों में आपको महर्षि चरक, महर्षि पराशर, महर्षि निघंटु तथा पुरातन काल के सभी महान आयुर्वेदाचार्यों का कार्य सार रूप में मिलता है| इन दोनों पुस्तकों में लगभग 7000 सूत्र हैं जिन पर भाई राजीव जी और उनके कई साथी जिनमें वैज्ञानिक भी शामिल थे, ने अनुसन्धान एवं अध्ययन किया| भारत के बाहर जर्मनी तथा जापान जैसे देशों में भी इनके कार्यों पर बहुत शोध चल रहा है| इन 7000 सूत्रों में से भी कुछ विशेष महत्वपूर्ण सूत्रों को भाई राजीव जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है और उस पर आधुनिक परिप्रेक्ष्य अनुसार प्रकाश डाला है| अंत में एक ऑडियो लिंक दिया गया है| आपसे अनुरोध है कि उसे अवश्य सुनें!


सूत्र १ : जिस भोजन को पकाते समय वायु और सूर्य का प्रकाश न मिले, वह भोजन विष समान होता है|

विष दो प्रकार के होते हैं – एक वो जिनसे तत्काल मृत्यु हो तथा दूसरे वो जो अपना असर धीरे धीरे करते हैं| उपरोक्त विष रोग उत्पन्न करता है और यदि ध्यान न दिया जाए तो ये गंभीर रोग जानलेवा भी हो सकते हैं| इनमें से कई रोगों को आज का आधुनिक विज्ञान पहचान भी चुका है| यदि आधुनिक युग की बात करें तो प्रेशर कुकर वो यंत्र है जो इस विष को बनाने में हमारी सहायता करता है क्योंकि यह पूरी तरह से बंद होता है जिसमें वायु प्रवेश नहीं कर सकती तथा सूर्य के प्रकाश के जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता| CDRI (Central Drugs Research Institute) के वैज्ञानिकों के अनुसार जो भोजन प्रेशर कुकर में बनाया जाता है, उसके 87% पोषक तत्व आपके शरीर में पचते ही नहीं क्योंकि वे भोजन में निकल कर बाहर नहीं आ पाते| तो फिर हम खाते क्या है? कुकर में जल डलता है और उसे नीचे से ऊष्मा दी जाती है| इससे कुकर के अंदर उच्च दाब (pressure) बनता है जो खाने को केवल गलाता है, पकाता नहीं| गलाने और पकाने में अंतर है रासायनिक क्रिया (chemical reaction) का| गला हुआ खाना केवल मुलायम होता है और पका हुआ खाना वो होता है जिसमें नियंत्रित प्रभावों (controlled environmental conditions like heat, temperature, pressure etc.) के जरिए भोजन के पोषक तत्व बाहर निकल कर आते हैं जिन्हें हमारा शरीर पचा कर स्वस्थ बनता है| तो फिर विकल्प क्या है? सर्वोत्तम है मिट्टी का बर्तन, फिर कांसे का, फिर ताम्बे का| मिट्टी के बर्तन में पोषक तत्व ज्यों के त्यों, कांसे के बर्तन में 97% तथा ताम्बे के बर्तन में 93% पोषक तत्व मिलते हैं बजाय कुकर के जिसमें आप केवल 13% पोषक तत्व ही उपयोग कर पाते हैं| हमारे रोगी होने के बहुत से कारणों में सबसे बड़ा कारण होता है पोषक तत्वों की कमी| इसी कमी की वजह से diabetes, cancer, high blood pressure तथा arthritis जैसे गंभीर रोग हो जाते हैं| कितने रोगी ऐसे हैं इस देश में जिन्होंने बिना किसी दवा के केवल मिट्टी के बर्तनों में खाना पका कर अपनी शुगर को ठीक किया है केवल 1 वर्ष के अंदर! इन खुले बर्तनों में समय तो अधिक लगता है परंतु बचे हुए समय का आप करते क्या हैं? आज के युग में अधिकांश महिलाएं टीवी पर धारावाहिक देखती हैं या पड़ोसियों से बातों में मशगूल रहती हैं| यह वाक्य ठीक नहीं था परंतु सच्चाई भी यही है| अंत में हाथ क्या आता है? बचाए हुए समय से कहीं अधिक समय रोगग्रस्त होकर अस्पताल में या दर्द में गुज़ारा जाता है| उससे कहीं अच्छा हो यदि हम अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य के प्रति सचेत हों और अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करें|

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